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________________ . जैनहितैषी। [भाग १५ वह संस्कृत भाषाके विद्वानोंका संसर्ग उत्कट इच्छा होती है और उनके सम्बन्धकरे. उनसे प्रेम रक्खे, और उनकी सेवा में यह साफ तौरसे लिख भी दिया करते में रहकर कुछ सीखे, संस्कृतकी पुस्तको- हैं कि हम ऐसे परमात्म-गुणों की प्राप्तिके का प्रेमपूर्वक संग्रह करे और उनके अध्य- लिये परमात्माकी वन्दना करते हैं; जैसा यनमें चित्त लगाए। यह नहीं हो सकता कि सर्वार्थसिद्धि में श्रीपूज्यपादाचार्यके कि, संस्कृतके विद्वानोंसे तो घृणा करे, दिये हुए निम्न वाक्यसे प्रकट हैउनकी शकला तक भी देखना न चाहे, उनसे कोसों दूर भागे, संस्कृतकी पुस्तकोंको छुए ___ मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृतां । तक नहीं, न संस्कृतका कोई शब्द अपने ज्ञातारं विश्वतत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ कानों में पड़ने दे, और फिर संस्कृतका विद्वान् बन जाय । इसलिये प्रत्येक गुणकी इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि परमात्माकी उपासना मुख्य- . प्राप्तिके लिये उसमें सब ओरसे अनुराग तया उसके गुणोंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे की की बड़ी ज़रूरत है। जो मनुष्य जिस गुणका जाती है, उसमें परमात्माकी कोई गरज आदर सत्कार करता है अथवा जिस नहीं होती बल्कि वह अपनी ही गरज़ को. गुणसे प्रेम रखता है वह उस गुणके गुणी लिये हुए होती है और वह गरज़ 'आत्मका भी अवश्य श्रादर सत्कार करता है और उससे प्रेम रखता है। क्योंकि गुणीके ९ लाभ' है जिसे परमात्माका आदर्श र सामने रखकर प्राप्त किया जाता है। और श्राश्रय बिना कहीं भी गुण नहीं होता। - इसलिये, जो लोग उपासनाके इस मुख्योआदर सत्कार रूप इस प्रवृत्तिका नाम . द्देश्यको अपने लक्ष्यमें नहीं रखते और ही पूजा और उपासना है। इसलिये पर. मात्मा* इन्हीं समस्त कारणोंसे हमारा न उपकारके स्मरण पर ही जिनकी दृष्टि रहती है उनकी उपासना वास्तवमें उपापरम पूज्य और उपास्य देव है। उसकी सना कहलाए जानेके योग्य नहीं हो इस उपासनाका मुख्य उद्देश्य, वास्तवमें, सकती। ऐसी उपासनाको बकरीके गले में परमात्मगुणोंकी प्राप्ति-अथवा अपने - लटकते हुए स्तनोंसे अधिक महत्त्व नहीं श्रात्मीय गुणोंकी प्राप्तिकी भावना है। दिया जा सकता। उसके द्वारा वर्षों क्या, यह भावना जितनी अधिक दृढ़ और ___ कोटि जन्म में भी उपासनाके मूल उद्देश्यविशुद्ध होगी सिद्धि भी उतनी ही अधिक निकट होती जायगी । इसीसे अच्छे अच्छे की सिद्धि नहीं हो सकती। और इसलिये, योगीजन भी निरन्तर परमात्माके गुणों यह जीव संसारमें दुःखोंका ही पात्र बना रहता है। दुःखोंसे समुचित छुटकारा का चिन्तवन किया करते हैं। कभी कभी । तभी हो सकता है जब कि परमात्माके वे परमात्माका स्तवन करते हुए उसमें । उन खास खास गुणोंका उल्लेख करते हुए। गुणोंमें अनुराग बढ़ाया जाय । परमात्मा 1. के गुणों में अनुराग बढ़नेसे पापपरिणति देखे जाते हैं जिनको प्राप्त करनेकी उनकी सहजमें ही छूट जाती है और पुण्यपरि णति उसका स्थान ले लेती है। इसी . इन्हीं कारणोंसे अन्य वीतरागी साधु और महात्मा भी, जिनमें आत्माकी कुछ शक्तियाँ विकसित हुई आशयको स्वामी समन्तभद्राचार्यने निम्न हैं और जिन्होंने अपने उपदेश आचरण तथा शास्त्र- वाक्य द्वारा, बड़े ही अच्छे ढंगसे प्रति. निर्माणसे हमारा उपकार किया है वे सब हमारे पूज्य है। पादित किया है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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