SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी । .४-गः कतिप्रभाचन्द्रस्य । ४-३-१८.। क्रमसे हुए, या अक्रमसे, और उनके बीच१-बेः सिद्धसेनस्य । ५-१-७। में कितना कितना समय लगा, यह जानने ६-चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५.४.१४.। का कोई भी साधन नहीं है। यदि हम जहाँ तक हम जानते हैं, उक्त छहों इनके बीचका समय २५० वर्ष मान ले तो प्राचार्य प्रन्थकर्ता तो हो गये हैं, परन्तु भूतबलिका समय वीरनिर्वाण संवत १३३ उन्होंने कोई व्याकरण ग्रन्थ भी बनाये होंगे, (शक संवत् ३२- वि० सं० ४६३) के ऐसा विश्वास नहीं होता। जान पड़ता लगभग निश्चित होता है । और इस है, पूर्वोक्त आचार्योंके ग्रन्थों में जो जुदा हिसाबसे वे पूज्यपाद खामीसे कुछ ही जुदा प्रकारके शब्दप्रयोग पाये जाते होंगे पहले हुए हैं, ऐसा अनुमान होता है। उन्हींको व्याकरणसिद्ध करनेके लिए ये २ श्रीदत्त । विक्रमकी 8वीं शताब्दि के सुप्रसिद्ध लेखक विद्यानन्दने अपने सब सूत्र रचे गये हैं। इन प्राचार्योमेसे जिन जिनके ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनके शब्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'जल्पप्रयोगोंकी बारीकीके साथ जाँच करनेसे निर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है:इस बातका निर्णय हो सकता है। प्राशा द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभगोचरम् । है कि जैन समाजके परिडतगण इस त्रिषष्टादिनां जेता श्रीदतो जल्पनिर्णये ॥ विषयमें परिश्रम करनेकी कृपा करेंगे। इससे मालूम होता है कि ये ६३ १ भूतबलि । इनका परिचय इन्द्र- वादियोंके जीतनेवाले बड़े भारी तार्किक नन्दिकृत श्रुतावतार कथामें दिया गया थे। आदिपुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने है। भगवान् महावीरके निर्वाणके ६८३ भी इनका स्मरण किया है और इन्हें वर्ष बाद तक अंगशानकी प्रवृत्ति रही। वादिगजोंका प्रभेदन करने के लिए सिंह इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, बतलाया है:-- और अहहत्त नामके चार श्रारातीय मुनि श्रीदताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । हुए जिन्हें अंग और पूर्वके अंशोका शान था। इनके बाद अर्हद्वलि और माघनन्दि कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४५॥ आचार्य हुए । इन्हें उन अंशोका भी कुछ वीरनिर्वाण संवत् ६-३ के बाद जो अंश शान था । इनके बाद धरसेन ४ारातीय मुनि हुए हैं, उनमें भी एक प्राचार्य हुए। इन्होंने भूतबलि और पुष्प नाम श्रीदत्त है। उनका समय वीरनिर्वाण दन्त नामक दो मुनियों को विधिपूर्वक सं० ७०० (शक सं०६५ वि० सं० २३०) अध्ययन कराया और इन दोनोंने महा- के लगभग होता है । यह भी संभव है कि कर्मप्रकृतिप्राभृतयाषट्खण्ड नामक शास्त्र- आरातीय श्रीदत्त दूसरे हों और जल्प की रचना की । यह ग्रन्थ* ३६ हजार निर्णयके कर्ता दूसरे। तथा इन्हीं दूसरेका श्लोक प्रमाण है। इसके प्रारभ्भका कुछ उल्लेख जैनेन्द्र में किया गया हो। भाग पुष्पदन्त आचार्यका और शेष भूत- ३ यशोभद्र । आदिपुराणमें संभवतः बलिका बनाया हुआ है। वीरनिर्वाण - संवत् ६३ के बाद पूर्वोक्त सब प्राचार्य .लोक्यसारके कर्ता 'नेमिचन्द्र' ने और हरिवंश पुराणके कर्ताने वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष बाद शककाल •संभवतः यह ग्रन्थ मूडबिद्री ( मेंगलोर ) के जैन- माना है। उन्हींकी गणनाके अनुसार हमने यहाँ शक भण्डारमें मौजूद है। संवत् दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy