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________________ अङ्क १-२] जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी । इनके सिवाय कहा जाता है कि इनके कर्ताका ही बनाया हुआ समझकर उल्लेख बनाये हुए और भी कई ग्रन्थ हैं । सर्वार्थ- . कर दिया करते हैं। सिद्धिकी भूमिकामें श्रीयुत पं० कलापा. : वृत्तविलास कविकी कनडी धर्मनिटवेने लिखा है कि चिकित्साशास्त्र पर परीक्षाका जो पद्य पहले उद्धृत किया जा भी पूज्यपादस्वामीके दो ग्रन्थ उपलब्ध चुका है उसमें दो ग्रन्थोंका और भी होते हैं, जिनमेंसे एकमें चिकित्साका और उल्लेख है, एक पाणिनिव्याकरणकी टीकादूसरेमें औषधों तथा धान्योंका गुणनिरू- का और दूसरे यन्त्रमन्त्रविषयक शास्त्रपण है। परन्तु पण्डित श्रीमहाशयने न का । पूज्यपाद द्वारा पाणिनिकी टोकाका तो उक्त ग्रन्थोंका नाम ही लिखा है और लिखा जाना असम्भव नहीं है; परन्तु न यही लिखनेकी कृपा की है कि वे कहाँ साथ ही वृत्तविलासको पूज्यपादके जिनेउपलब्ध हैं। शुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञाना- न्द्रबुद्धि' नामसे भी यह भ्रम हो गया हो गवके नीचे लिखे श्लोकके 'काय' शब्दसे तो आश्चर्य नहीं । क्योंकि पाणिनिकी भी यह बात ध्वनित होती है कि पूज्यपाद- काशिका वृत्तिपर जो न्यास है उसके स्वामीका कोई चिकित्सा ग्रन्थ है:- कर्ताका भी नाम 'जिनेन्द्रबुद्धि' है। इस अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । नामसाम्यसे यह समझ लिया जा सकता कलङ्कमाङ्गिनां सोयं देवनन्दी नमस्यते ॥ है कि पूज्यपादने भी पाणिनिकी टीका लिखी है।न्यासकार 'जिनेन्द्रबुद्धि' वास्तव- पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्सटिट्यूट- में बौद्ध भिक्षु थे और वे अपने नामके में 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ साथ श्रीबोधिसत्त्वदेशीयाचार्ययह बौद्ध है* । यह आधुनिक कनडीमें लिखा हुआ है। कनडी भाषाका ग्रन्थ है। पर इसमें न चरित्र-लेखकने लिखा है कि पाणिनि तो कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न पूज्यपादके मामा थे और पाणिनिके यही मालूम होता है कि यह उनका बनाया अधूरे ग्रन्थको उन्होंने ही पूर्ण किया था; हुआ होगा। परन्तु इस समय ऐसी बातोपर विश्वास विजयनगरके हरिहर राजाके समयमें नहीं किया जा सकता। - "मंगराज नामका एक कनडी कवि हुआ 'जैनाभिषेक' नामक एक और ग्रन्थहै। वि० सं० १४१६ के लगभग उसका का जिकर 'जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं' अस्तित्व काल है। स्थावर विषोंकी आदि श्लोकमें किया गया है। यह श्लोक प्रक्रिया और चिकित्सापर उसने खगेन्द्र ऊपर पृष्ठ ६५ में दिया जा चुका है। मणिदर्पण नामका एक ग्रन्थ लिखा है। जहाँ तक हमारा ख़याल है, जैनाभिषेक इसमें वह अपने आपको पूज्यपादका और यन्त्रमन्त्रविषयक ग्रन्थ भी अन्य शिष्य बतलाता है और यह भी लिखता है किसी पूज्यपादके बनाये हुए होंगे और कि यह प्रन्थ पूज्यपादके वैद्यक ग्रन्थसे भ्रमसे इनके समझ लिये गये होंगे। संगृहीत है। इससे मालूम होता है कि पूज्य __ कनडी पूज्यपादचरितमें पूज्यपादके पाद नामके एक विद्वान् विक्रमकी तेर बनाये हुए अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण और शान्त्यहवीं शताब्दिमें भी हो गये हैं और लोग टक नामक स्तोत्रका भी जिकर है।. . भ्रमवश उन्हींके वैद्यक ग्रन्थको जैनेन्द्रके -अपूर्ण। • नं० १०६६, सन् १८८७-६१ को रिपोर्ट । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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