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________________ ૪ नहीं होता बल्कि समस्त शरीर वेदनाके arry स्वस्थ रहता है । यदि ज्यादा प्रहार करने पर पैरको सर्वथा ही शरीर से अलग कर दिया जाता है तो कुछ समय में समस्त शरीर चैतन्यरहित हो जाता है । इसी प्रकार धर्मरूपी शरीरका मस्तिष्क जैनधर्म है और उसकी वर्तमान शाखा प्रशाखायें मस्तिष्क के ही विभाग हैं। बाकी संसार के समस्त भिन्न भिन्न धर्म उस शरीर के अन्यान्य हस्त पादादिक अंग और श्रवयव हैं । यही श्रनेकान्तका वास्त विक रहस्य है । परन्तु श्राजकल एक तो जैन समाज में अनेकान्तको समझनेवाले ही कम हैं और जो थोड़े बहुत विद्वान् अनेकान्तको जाननेवाले हैं भी उनकी प्रायः यही धारणा है कि अनेकान्त किसीके खंडन करनेका ब्रह्मास्त्र है; उसका उपयोग सिर्फ़ अन्य धर्मोका खंडन करनेके लिये और वस्तु स्वभावकी असलियत परखने तथा उसके अनुभव करनेमें कुछ गड़बड़ी मचानेके लिये ही है । ऐसा मानना बड़ी भूल है । इसी भूलसे समाजका अधःपतन हो गया और होता जा रहा है। जैनहितैषी । पूज्य श्रमृतचन्द्राचार्यजीने अपने " पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय" ग्रन्थ में सत्य लिखा है कि " अत्यन्त निशित धारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् | खण्डयतिधार्यमाणं मूर्धानंझटिति दुर्विदग्धानाम्" ॥ "श्रीजिनेन्द्र भगवान के अति तीक्ष्ण धारवाले और कठिनतासे सिद्ध होनेवाले मयचक्र को अज्ञानी पुरुष धारण करे तो वह उनके मस्तक को शीघ्र ही खण्डन कर देता है ।" अर्थात् अनेकांतरूपी नयचक्रको समझना बड़ा कठिन है; जो कोई Jain Education International [ भाग १५ बिना समझे इसमें प्रवेश करते हैं वे अपने ही हाथोंसे धर्मरूपी शरीरका मस्तक शरीर से अलग कर देते हैं । फिर शरीरके दूसरे श्रंगावयवोंको नष्ट करनेकी तो बात ही अलग है । मनुष्य मात्रको अपने हृदयमें यह गाँठ बाँध लेना चाहिए कि, अनेकांत ( स्याद्वाद ) पथका उद्देश विरोध और भेदभाव बढ़ानेका नहीं, बल्कि विरोध और भेदभाव दूर करनेका है । इसी लिये उक्त श्राचार्य प्रवरने अनेकांतको परमागम का जीव - सत्य सिद्धान्तकी जान-सकल नयोंसे विलसित तथा विरोधका दूर करनेवाला माना है और अनेकांतकी इस सार्वभौमिक प्रभुताके उत्कृष्ट महत्वको समझकर उसे नमस्कार किया है । यथा परमागमस्य जीवं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकल नय विलसितानां 66 विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ श्रीविनयविजयजी उपाध्यायने 'नयकर्णिका' नामकी एक अत्यन्त सुबोध, सरल और लघु पुस्तक, स्याद्वाद में प्रवेश करनेवाले व्यक्तियोंके लिये, निर्मित की है, जिसकी श्लोक संख्या २३ है । इसे गुजराती अनुवाद, प्रस्तावना, उपोद्घात, कर्ताके जीवनचरित्र और स्फुट विवेचन सहित पण्डित लालनने प्रसिद्ध किया है। उक्त पुस्तक में उपाध्यायजीने वर्द्धमान स्वामीकी स्तुति के रूपमें सप्तनयोंका बहुत सुन्दरतापूर्वक वर्णन किया है । उपाध्यायजी कहते हैं "वर्धमानं स्तुमः सर्वनयनद्यर्णवागमम् । संक्षेपतस्त दुन्नीतनयभेदानुवादतः || १ || " "श्रीवर्द्धमान स्वामीका श्रागम सब नयरूपी नदियोंके लिये समुद्रके समान है; उनके द्वारा प्ररूपित नयभेदोंका संक्षेपमें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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