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________________ प्रक१-२] जैनसिद्धान्तभवन, माराका निरीक्षण । टिप्पण-संग्रह है । सूची बनानेलालोंको उससे इस सूची में भी सैकड़ों त्रुटियों, टिप्पणके कुछ अन्तिम शब्दों परसे ग्रन्थके अशुद्धियों और भूलोका पता चलता है। नामादिकका यह सब भ्रम हुआ है। इस नमूनेके तौर पर दो एक उदाहरण इसके प्रन्थका पता चलाना खास अनुभवसे भी नीचे दिये जाते हैं:सम्बन्ध रखता था; क्योंकि इसमें मूल १-पृष्ठ ११ पर 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' प्रन्थ दिया हुआ नहीं है, खालिस टिप्पण नामका एक १४६०० श्लोकसंख्यावाला टिप्पणका संग्रह किया गया है। ग्रन्थ 'नेमिचंद्र' आचार्यका बनाया हुआ ६-पृष्ठ ५३ 'त्रिभंगी' नामका एक लिखा है और उसकी भाषा प्राकृत दी प्रन्थ श्रीकनकनंदी आचार्यका बनाया है जिससे पढ़नेवालोको यही स्खयाल हुना लिखा है और उसकी श्लोकसंख्या होता है कि नेमिचंद्राचार्यका बनाया १४०० दी है। वास्तवमें कनकनंदी प्राचार्य- हुश्रा इस नामका भी कोई महान् प्राकृत का बनाया हुआ इतनी श्लोकसंख्या- ग्रन्थ है। परन्तु बात ऐसी नहीं है। वास्तववाला त्रिभंगी नामका यह ग्रन्थ नहीं है। में यह गोमटसारकी कनड़ी टीका है जो इसमें नेमिचंटाटिककी कई त्रिभंगियाँ केशववर्णीकी बनाई हुई है। शामिल हो रही हैं और इसलिये इसे २-पृष्ठ १२ पर 'तत्त्वार्थरत्नप्रदी'त्रिभंगीसंत्र ग्रह लिखना चाहिये था। पिका' नामका एक ग्रन्थ 'उमास्वामी का साथ ही, प्रन्थकर्ताके नीचे नेमिचंद्रादि- बनाया हुश्रा लिखा है, उसकी भाषा का नाम भी दिखलाना चाहिये था और संस्कृत और श्लोकसंख्या ७५०० दी है। यदि कनकनंदीकी त्रिभंगीको अलग दिख- वास्तवमें यह तत्त्वार्थसूत्रकी वही कनड़ी लाना इष्ट था तो उसका पूरा नाम 'विस्तर- टीका है जिसको बालचंद्र मुनिने बनाया सत्वत्रिभंगी' देकर श्लोकसंख्याके कोष्ठक है और जिसका उल्लेख हमने ऊपर देव. में ४- अथवा ५२ गाथाएँ दर्ज करनी नागरी लिपिके ग्रन्थों में भी किया है। चाहिये थीं; क्योंकि इसमें कनकनंदीकी इसकी श्लोकसंख्या ७०३६ है। . त्रिभंगीके दो पाठ संग्रह किये गये हैं ३-पृष्ठ २४ पर 'मरणक्रिया' नामजिनमें से एकमें ४८ और दूसरीमें ५२ का एक ग्रन्थ दिया है। यह ग्रन्थ वास्तवगाथाएँ हैं । साथ ही पत्रसंख्यामें भी में ब्रह्मसूरिका प्रतिष्ठातिलकांतर्गत 'त्रिवफेरफार होना चाहिये था और तब र्णाचार' नामका संस्कृत ग्रन्थ है। ग्रन्थदूसरी त्रिभंगियोंको अलग दिखलानेकी के अन्तमें मरणसम्बन्धी क्रियाका विधान भी जरूरत थी। होनेसे सूची बनानेवालोंने समूचे ग्रन्थ___इस तरह प्रन्थनाम, प्रन्थकर्ता, पत्र- का नाम ही 'मरणक्रिया' बना डाला है ! संख्या, श्लोकसंख्या और लिपिसंवत् ४-पृष्ठ ६ 'कल्याणकारक' नामके सम्बन्धी सैकड़ों भूले और अशुद्धियाँ इस __वैद्यक प्रन्थको संस्कृत भाषाका लिखा देवनागरी लिपिके ग्रन्थोंकी सूची में पाई है जो कि प्रायः कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है जाती हैं । कनड़ी लिपिके ग्रंथोकी सूची- और पत्रसंख्या भी ४६ के स्थानमें ४५ का भी प्रायः ऐसा ही हाल है। यद्यपि गलत दर्ज की है। इस सूचीकी पूरी जाँच अभी तक समाप्त दोनों प्रकारको सूचियोंके इन उदानहीं हुई-वह कुछ समय लेगी, तो भी हरणोंसे साफ़ ज़ाहिर है कि सूची बनानेजो कुछ जाँच हमारे सामने हो सकी है का काम प्रकृत विषयके अनुभवी पुरुषों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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