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तामिल प्रदेशों में जैनर्मावलम्बी। सब ओरसे .पल्लव, पाण्ड्य और चोल दक्षिण भारतके भी साहित्यमें राजनैतिक राज्यवाले तंग करते थे, तथापि विद्यामें इतिहासका बहुत कम उल्लेख है। उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। 'चिन्ता- हमें जो कुछ शान उस समयके जैनमणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्यकी रचना इतिहास का है वह अधिकतर पुरातत्त्वतिरुलकतेवर द्वारा नवीं शताब्दीमें हुई। वेत्ताओं और यात्रियोंके लेखोसे प्राप्त प्रसिद्ध तामिल-वैयाकरण पविनन्दि जैन- हुश्रा है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके ने अपने 'नन्नूल' की रचना १२२५ ई० अतिरिक्त ब्राह्मणों के ग्रन्थोंसे भी जैनमें की। 'जैन गजट में जैनियोंकी साहित्य- इतिहासका कुछ पता लगता है, परन्तु सेवाका विस्तृत विवरण छप चुका है। वे सम्भवतः जैनियोंका वर्णन पक्षपातके इन ग्रन्थोके अध्ययनसे यह पता लगता साथ करते हैं। है कि जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदु- इस लेखका यह उद्देश नहीं कि जैनम्बई (?) थिपंगुदी (तिरुवलूरके निकट समाज के प्राचार-विचारों और प्रथाओंएक ग्राम) और टिण्डिवानम्में बहुत का वर्णन किया जाय और न एक लेखसंख्यामें निवास करते थे।
में जैन-गृह निर्माण-कलाका ही वर्णन हो
सकता है। परन्तु इस लेखमें इस प्रश्न अन्तिम श्राचार्य श्रीमाधवाचार्यके
पर विचार करनेका प्रयत्न किया गया है जीवनकालमें मुसलमानोंने दक्षिण पर कि जैनधर्मके चिर-सम्पर्कसे.हिन्दु-समाजविजय प्राप्त की जिसका परिणाम यह
पर क्या प्रभाव पड़ा है। हा कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक जैनी लोग बड़े विद्वान् और पुस्तकोऔर धार्मिक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा
के लेखक हो गये हैं। वे साहित्य और और मूर्ति विध्वंसकोंके अत्याचारोंमें अन्य।
कलासे प्रेम रखते थे। जैनियोंकी तामिलमतावलम्बियोंके साथ जैनियोको भी कष्ट की सेवा तामिलियों के लिये अमल्य है। मिला। उस समय जैनियोंकी दशा वर्णन तामिल-भाषामें संस्कृतके शब्दोंका उपकरते हुए श्रीयुत वार्थ सा० लिखते हैं कि योग पहलेपहल सबसे अधिक जैनियों"मुसल्मान-साम्राज्य तक जैनमतका कुछ ही ने किया। उन्होंने संस्कृत शब्दोको कुछ प्रचार रहा । मुसलिम साम्राज्यका
तामिल-भाषामें उच्चारणकी सुगमताके प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दूधर्मका प्रचार हेत यथेष्ट रूपसे बदल डाला। कनड़ीरुक गया, और यद्यपि उसके कारण साहित्यकी उन्नतिमें भी जैनियोंका उत्तम समस्त राष्ट्र की धार्मिक, राजनैतिक और
र भाग है । वास्तवमें वे ही इसके जन्मदाता सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गई,
थे। 'बारहवीं शताब्दिके मध्य तक उसमें तथापि साधारण लघु संस्थाओ, समाजो जैनियोहीकी सम्पत्ति थी और उसके और मतोंकी रक्षा हुई ।”
अनन्तर बहुत समय तक जैनियोहीकी दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी उन्नति उसमें प्रधानता रही। सर्व प्राचीन और और अवनतिके इस साधारण वर्णनका बहुतसे प्रसिद्ध कनड़ी-ग्रन्थ जैनियोंहीयह उद्देश नहीं कि सुदूर दक्षिण-भारतमें के रचे हैं।" (लुइस राइस )। श्रीमान् प्रसिद्ध जैनधर्मका इतिहास वर्णन हो। पादरी एफ० किटेल सा० कहते हैं कि ऐसे इतिहास लिखनेके लिये यथेष्ठ 'जैनियोंने केवल धार्मिक-भावनाओसे सामग्रीका अभाव है। उत्तरकी भाँति नहीं, किन्तु साहित्य-प्रेमके विचारसे भी
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