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________________ जैनहितैषी। भाग १५ किसीसे राग या द्वेष नहीं है, किसीकी आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ स्तुति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नहीं सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा और तब वह आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल या कट शब्दो पर अप्रसन्नता लाता है; होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है धनिक श्रीमानों, विद्वानों और उच्च श्रेणी और परमात्मा कहलाता है* । केवलज्ञानया वर्णके मनुष्योंको वह प्रेमकी दृष्टि- (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होनेके पश्चात् से नहीं देखता और न निर्धन कंगालो, जब तक देहका सम्बन्ध बाकी रहता है मूखौ तथा निम्नश्रेणीके मनुष्योंको घृणा- तंब तक परमात्माको सकल परमात्मा की दृष्टिसे अवलोकन करता है; न सम्य- . जीवन्मुक्त तथा अर्हन्त कहते हैं और जब ग्दृष्टि उसके कृपापात्र हैं और न मिथ्या देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और दृष्टि उसके कोपभाजन; वह परमानंदमय मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकत और कृत्यकृत्य है, सांसारिक झगड़ोसे परमात्मा निष्कल परमात्मा, विदेहउसका कोई प्रयोजन नहीं । इसलिये मुक्त और सिद्ध नामोंसे विभूषित होता जैनियोंकी उपासना, भक्ति और पूजा, है । इस प्रकार अवस्था भेदसे परमाहिन्दू, मुसलमान तथा ईसाइयोंकी तरह, त्माके दो भेद कहे जाते हैं। वह परमात्मा परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नहीं अपनी जीवन्मुक्तावस्थामें अपनी दिव्य होती। उसका कुछ दूसरा ही उद्देश्य है वाणीके द्वारा संसारी जीवोंको उनकी जिसके कारण वे (समझदार जैनी) ऐसा आत्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह उपाय बतलाता है-अर्थात्, उनकी संक्षिप्तरूपसे यह है कि श्रात्मनिधि क्या है, कहाँ है, किस किस ___ यह जीवात्मा स्वभावसे ही अंनन्त- प्रकारके कर्मपटलोसे आच्छादित है, दर्शन, अनम्तज्ञान, अनन्तसुख और कैसे कैसे उपायोसे वे कर्मपटल इस अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोंका आधार आत्मासे जुदे हो सकते हैं, संसारके है। परन्तु अनादि कर्ममलसे मलिन अन्य समस्त पदार्थोसे. इस श्रात्माका होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ क्या सम्बन्ध है, दुःखका, सुखका और आच्छादित हैं-कौके पटलसे वेष्टितहैं; संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुःखकी और यह आत्मा संसारमें इतना लिप्त निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती और मोहजालमें इतना फँसा हुआ है है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके कि उन शक्तियोंका विकास होना तो साथ सम्यक् प्रकार निरूपण करता हैदूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको जिससे अनादि अविद्याग्रसित संसारी नहीं होता। कर्मके किंचित् क्षयोपशमसे जीवोंको अपने कल्याणका मार्ग सूझता जो कुछ थोड़ा बहुत ज्ञानादि लाभ होता है और अपना हित साधन करनेमें उनकी है, यह जीव उतनेहीमें संतुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप मानने लगता है। * ध्यानाजिनेश भवतो भविनः क्षणेन, इन्हीं संसारी जीवोंमेंसे जो जीव, अपनी देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, . सरश प्रशस्त ध्यानाग्निके बलसे, इस चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः॥ समस्त कर्ममलको दूर कर देता है उसमें -कल्याणमंदिर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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