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________________ २२ , जैनहितैषी। . [ भांग १५ अजितसेनका शिष्य कनकसेन, कनकसेन- चक्रवर्ती की पदवी बड़ी है । इसलिये का शिष्य जिनसेन और जिनसेनका शिष्य ऐसा मालूम होता है कि मलिषणको मल्लिषेण बतलाया गया है। श्राचार्योंके पहले 'उभयभाषाकविशेखरकी पदवी अनेक विशेषण भी एक प्रशस्तिके दूसरी प्राप्त थी और उस वक्तके बने हुए ग्रन्थोंप्रशस्तिके साथ मिलते जुलते हैं; जैसे कि में उसीका प्रयोग होता था। बादमें, जबमल्लिषेणको एक प्रशस्तिमें 'वाग्देवतालंकृत' से उन्हें 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती की दूसरीमें 'सरस्वतीदत्तवरप्रसाद' और पदवी मिली तबसे इस पदवीका प्रयोग तीसरीमें 'धाग्देवतालक्षितचारुवक्त्र' बत- होने लगा। कविचक्रवर्तीकी यह पदवी लाया गया है इसलिये नागकुमारपंचमी उन्हें महापुराण और नागकुमारपंचमीकथाकी तरह भैरवपद्मावतीकल्प और कथाकी रचनासे पहले प्राप्त हो चुकी थी, ज्वालिनीकल्प नामके ये दोनों ग्रन्थ भी इसीलिये वे इसका प्रयोग उक्त दोनों उन्हीं मल्लिषेणाचार्यके बनाये हुए हैं जो ग्रन्थोंमें कर सके हैं। 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती' कहलाते थे। उक्त तीनों प्रशस्तियोंसे यह तो मालूम परन्तु भैरवपद्मावतीकल्पकी संधियों में हो गया कि मल्लिषेण और जिनसेन दोनों मल्लिषेणको 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती' न ही अजितसेनकी गुरुपरम्परामें थे; परन्तु लिखकर 'उभयभाषाकविशेखर' लिखा ये अजितसेन कौन थे, यह बात अभीतक है; जैसा कि उसकी निम्नलिखित अन्तिम मालूम नहीं हुई। हमारी रायमें ये अजितसंधिसे प्रकट है : सेन वही जान पड़ते हैं जो कि श्रीचामुंड"इत्युभयभाषाविशेखरश्रीमीलेषणसूर राय और राजा राचमलके गुरु थे। विरचिते यालचिकित्सादिनमासवर्षसंख्याधिकार - चामुंडराय विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके प्रारम्भमें हुए हैं-उन्होंने शक संवत् समुखये द्वितीयोऽध्यायः ।। १०. में अपना त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराण भाषादयकवितायां, कवयो. नामका ग्रन्थ बनाकर समाप्त किया था. दप वहन्ति तावदिह । वही समय उनके गुरु अजितसेनके नालोकयन्ति यावत्कवि अस्तित्वका है। मल्लिणने अपना महाशेखरमल्लिषेणमुनिम् ॥" पुराण शक संवत् ६६६ में बनाकर समाप्त किया है और यह उनकी उस प्रौढ़ावस्थाइस अवतरणके अन्तमें प्रशस्तिविष की रचना है जब कि उन्हें 'कविचक्रवर्तीयक जो पद्य है उसमें यह बतलाया है की पदवी प्राप्त हो चुकी थी। इसलिये कि, दोनों भाषाओंकी कवितामें कविजन उनके दादा गुरु अजितसेनका समय भी उसी वक्त तक घमंड (दर्प)को धारण शक संवत् ६०० के करीब ही बैठता है। करते थे जब तक कि घे कविशेखर मल्लि समयकी इस एकताके ख़यालसे मल्लिघेता मनिको नहीं देख पाते थे-प्रथात् मानवादा गरु 'अजितसेन' और भीकविशेखर मल्लिषेण मुनिके सामने उभय चामुंडराय आदि राजाओंके गुरु 'अजितभाषाके कवियोंकामानखंडित होजाताथा। । सेना दोनों एक ही व्यक्ति मालूम होते '. इससे स्पष्ट है कि मल्लिषेण 'कवि- हैं। नागकुमार काव्य और भैरवपद्मावती शेखर' अथवा 'उभयभाषाकविशेखर' भी कल्पकी प्रशस्तियों में दिये हुए भूपकिरीटकहलाते थे। परन्तु 'कविशेखर' से 'कवि- विघट्टितक्रमयुगः', 'सकलनृपमुकुटघटित. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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