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________________ अङ्क २-२ ] समयका मानो अन्तिम निर्णय हो गया । इन प्रमाणोंको भी हम अपने पाठकोंके सम्मुख उपस्थित कर देना चाहते हैं: परन्तु साथ ही यह भी कह देना चाहते हैं कि ये प्रमाण जिस नीवपर खड़े किये गये हैं, उसमें कुछ भी दम नहीं है। जैसा कि हम पहले सिद्ध कर चुके हैं, जैनेन्द्रका असली सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकी महावृत्ति रची गई है; परन्तु पाठक महोदयने जितने प्रमाण दिये हैं, वे सब शब्दावचन्द्रिकाके सूत्रपाठको असली जैनेन्द्रसूत्र मानकर दिये हैं; इस कारण वे तबतक ग्राह्य नहीं हो सकते जबतक कि पुष्ट प्रमाणसे यह सिद्ध नहीं कर दिया जाय कि शब्दार्णवचन्द्रिकाका पाठ ही ठीक है और इसके विरुद्धमें दिये हुए हमारे प्रमाणका पूरा पूरा खण्डन न कर दिया जाय । १ -- जैनेन्द्रका एक सूत्र है --- 'हस्तादेयेनुद्यस्तेये चे:' [२-३ - ३६ ] । इस सूत्र के अनुसार 'चि' का 'चाय' हो जाता है, उस अवस्थामें जब कि हाथ से ग्रहण करने योग्य हो, उत् उपसर्गके बाद न हो और चोरी करके न लिया गया हो। जैसे 'पुष्प प्रचायः । हस्तादेय न होनेसे पुष्पप्रचय, उत् उपसर्ग होनेसे 'पुष्पोश्चय' और चोरी होने से 'पुष्पप्रचय' होता है। । इस सूत्र में उत् उपसर्गके बाद जो 'चाय' होनेका निषेध किया गया है, वह पाणिनिमें, † जैनेन्द्र व्याकरण और श्राचार्य देवनन्दी | • इन प्रमाणोंमें जहाँ जहाँ जैनेन्द्रका उल्लेख हो वहाँ वहाँ शब्दार्णव- चन्द्रिकाका सूत्रपाठ समझना चाहिए। सूत्रों के नम्बर भी उसीके अनुसार दिये गये हैं । + 'हस्तादेये' हस्तेनादानेऽनुदि वाचि चिञो घञ भवत्यस्तेये । पुष्पप्रचायः । वस्तादेय इति किं ? पुष्पप्रचयं करोति तरुशिखरे । अनुदं ति किं ? फलोच्चयः । श्रस्तेय इति किं ? फलप्रचयं करोति चौर्येण (शब्दाव- चन्द्रिका पृष्ठ ५६) + पाणिनिका सूत्र इस प्रकार है- 'हस्तादाने चेरस्तेवे' ( ३-३-४० ) Jain Education International પૂ उसके वार्तिक में और भाष्य में भी नहीं है । परन्तु पाणिनिकी काशिकावृत्ति में ३-३४० सूत्रके व्याख्यानमें है -- 'उच्चयस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । इससे सिद्ध होता है कि काशिका के कर्त्ता वामन और जयादित्यने इसे जैनेन्द्रपरसे ही लिया है और जयादिव्यकी मृत्यु वि० सं० ७१७ में हो चुकी थी ऐसा चीनी यात्री इत्सिंगने अपने यात्रा विवरण में लिखा है । अतः जैनेन्द्रव्याकरण वि० सं० ७१७ से भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए । २-- पाणिनि व्याकरण में नीचे लिखा. हुश्रा एक सूत्र है:'शरद्वच्छुनकदर्भाद् भृगुवत्साग्रायणेषु ।' -- ४-१-१०२ इसके स्थान में जैनेन्द्रका सूत्र इस प्रकार है- 'शरद्वच्छुनकदर्भाग्निशर्मकृष्णरणात् भृगुवत्सामायणवृषगणत्र ह्मणवसिष्ठ ।'३-१-१३४ । इसीका अनुकरणकारी सूत्र शाकटानमें इस तरह का हैः - 'शरद्वच्छुनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भृगुवत्सवसिष्ठवृषगणब्राह्मणामायणे' २-४-३६ इस सूत्र की श्रमोधवृत्तीमें ' आमिशर्मा यणो वार्षगण्यः । आभिशर्मिरन्यः । इस तरह व्याख्या की है। इन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि पाणिनिमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया है जब कि जैनेन्द्रमें किया गया है । 'वार्षगण्य' सांख्य कारिकाके कर्त्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है और सुप्रसिद्ध चीनी विद्वान् डा० टक्कुसुकै मतानुसार ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान थे। इससे निश्चय हुआ कि जैनेन्द्रव्याकरण ईश्वरकृष्णके बादवि० सं० ५०७ के बाद और काशिकाले For Personal & Private Use Only • www.jalnelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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