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________________ जैनहितैषी । उन्होंने अनेक बार स्वमुखसे उद्घो षित किया है । श्रहमदाबादमें, 'राजचन्द्र जयन्ती' के समय पर सभापतिकी हैसि यतसे महात्मा गांधीने श्रीमद्राजचन्द्र और उनकी कृतियोंके सम्बन्धमें जो उद्गार निकाले थे उन्हें इस पुस्तकसे, हम अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे उधृत करते हैं : 'मेरे जीवन पर श्रीमद् राजचन्द्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पड़ा कि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । उनके विषयमें मेरे गहरे विचार हैं। मैं कितने ही वर्षोंसे भारतमें धार्मिक पुरुषकी खोजमें हूँ; परन्तु मैंने ऐसा धार्मिक पुरुष भारत में अबतक नहीं देखा जो श्रीमद् राजचन्द्र भाई के साथ प्रतिस्पर्द्धा में खड़ा हो सके। उनमें ज्ञान, वैराग्य और भक्ति थी; ढोंग, पक्ष पात या राग-द्वेष न थे । उनमें एक ऐसी महती शक्ति थी कि जिसके द्वारा वे प्राप्त हुए प्रसंगका पूर्ण लाभ उठा सकते थे । उनके लेख अँगरेज तत्वज्ञानियोंकी अपेक्षा भी विचक्षण, भावनामय और श्रात्मदर्शी हैं। मैं योरप के तत्त्वज्ञानियोंमें टालस्टायको पहली श्रेणीका और रस्किनको दूसरी श्रेणीका विद्वान् समझता हूँ; पर श्रीमद् राजचन्द्र भाईका अनुभव इन दोनोंसे भी बढ़ा चढ़ा था। इन महापुरुषके जीवन के लेखको आप अवकाश के समय पढ़ेंगे तो श्रापपर उनका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। वे प्रायः कहा करते थे कि मैं किसी बाड़ेका नही हूँ; और न किसी बाड़े में रहना ही चाहता हूँ । ये सब तो उपधर्म- मर्यादित हैं और धर्म तो असीम है जिसकी व्याख्या ही नहीं हो सकती । वे अपने जवाहिरातके धन्धे से विरक्त होते कि तुरन्त पुस्तक हाथमें लेते । यदि उनकी इच्छा होती तो उनमें ऐसी शक्ति थी कि वे एक अच्छे प्रतिभाशाली बैरिस्टर, Jain Education International [ भाग १५ अज या वाइसराय हो सकते। यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु मेरे मन पर उनकी छाप है । इनकी विचक्षणता दूसरे पर अपनी छाप लगा देती थी ।" महात्माजीके इन उद्गारोंसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि श्रीमद् राजचन्द्रजी कितने असाधारण धार्मिक पुरुष थे, उनका अनुभव कितना बढ़ा चढ़ा था और इसलिये उनकी वृत्तियाँ कितनी अधिक उत्तम तथा मनन किये जानेके योग्य हैं। इन उद्गारों के मौजूद होते हुए हमें इस पुस्तकका कुछ विशेष परिचय देनेकी ज़रूरत नहीं है। हाँ इतना ज़रूर कहना होगा कि हमें इस पुस्तकके पढ़नेसे बहुत कुछ संतोष और शांति-लाभ हुआ है; और इसलिये हमारा अनुरोध है कि प्रत्येक स्त्री पुरुषको इसे ज़रूर पढ़ना चाहिये । यह पुस्तक सभी लायब्रेरियों और पुस्तकालयोंमें संग्रह किये जानेके योग्य है । इस पुस्तकसे यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताकी कुछ दूसरी वृत्तियाँ भी ( जैसे कि 'श्रीमद्राजचन्द्र' नामका ग्रन्थ) गुजराती में प्रकाशित हुई हैं परन्तु अभी तक हमें उनके देखनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । यह पुस्तक हमें श्राराके कुमार देवेंद्रप्रसादजीले प्राप्त हुई थी, जिसके लिये हम उनके कृतज्ञ हैं । २ निबन्धरत्नमाला - लेखिका श्रीमती पण्डिता चन्दाबाई, श्रारा। प्रकाशक कुमार देवेन्द्रप्रसादजी, प्रेममन्दिर, श्रारा । पृष्ठसंख्या १२५ से ऊपर । मूल्य आठ श्राना । 'कन्या विद्यावलम्बिनी पुस्तकमाला' की यह तृतीय पुस्तक है । इससे पहले सौभाग्यरत्नमाला और उपदेशरत्नमाला नामकी दो पुस्तकें और भी उक्त लेखिकाकी लिखी हुई प्रकाशित हो चुकी हैं। इस पुस्तकमें ९ मानव हृदय, २ पवित्रता, ३ सद्ज्ञान, ४ सद्व्यवहार, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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