Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 65
________________ अङ्क १-२ सम्पादकीय पक्तन्यं । बिना मूल्य दिये जायँ-प्रायः ऐसी ही का नतीजा है । वास्तवमें जैनहितैषी. दशा हुई। महात्माजीको वर्ष के बीच में किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर, निजी ही अपने पत्रका मूल्य बढ़ाना पड़ा और लाभके लिये नहीं निकाला जाता। इसमें, जब उससे भी काम न चला-घाटा संपादक और प्रकाशक दोनोकी ओरसे, होता देखा तो पत्रकी पृष्ठसंख्या भी कम जो कुछ शक्ति और समयका व्यय किया करनी पड़ी। परन्तु जैनहितैषीने, जिसकी जाता है वह सब समाजहितके लिये है-- प्राहक संख्या अल्प है, जिसे बाहरसे भी समाजमें ऊँचे विचारोंका प्रचार करके किसीकी कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं उसे सन्मार्गकी अोर लगानेकी ग़रज़से है और जिसकी छपाईका चार्ज, दो एक है। देखते हैं, समाज कबतक चेतता और अंकोंके बादसे ही, १६ रुपयेके स्थानमें २२ अपने हितैषीको पहचानता है। हमारे रुपये हो गया था-वर्ष के बीचमें ही, एक मित्रका यह अनुभव, यद्यपि ठीक है अपना मूल्य बढ़ाना उचित नहीं समझा कि जैनियों में अच्छे साहित्यको पढ़नेवाले और न अपवे नियत फार्मोकी संख्या- नहीं हैं--उनका प्रायः अभाव है--तो भी अर्थात् पृष्ठ संख्याको ही कम किया। इतने अच्छे साहित्यके पढ़नेवालोको पैदा करनेपरभी समाजने इस पत्रके साथ जोसलूक के लिये उपाय भी यही है कि हानि किया है उसे देखकर दुःख होता है। उठाकर भी, उनमें अच्छे साहित्यका बहुतसे ग्राहक पाँच पाँच महीने तक प्रचार किया जाय । और इसी लिये जैन बराबर खुशीसे जैनहितैषी लेते रहे हितैषीका यह सब प्रयत्न है--वह अपनी और जब छठा अंक उनके पास वी. पी. शक्तिभर आर्थिक हानि उठाकर भी द्वारा भेजा गया तो उन्होंने वापस कर . फिरसे सेवाके लिये तय्यार हुआ है -दिया; और इतनी भी प्रामाणिकता नहीं और जबतक शक्ति बनी रहेगी तबतक दिखलाई कि पाँच पाँच अंकोंकी बाबत . बराबर सेवा करता रहेगा। परन्तु उस मूल्यके पन्द्रह पन्द्रह आने ही भेज दिये शक्तिको बनाये रखना अधिक क्षीण जायँ । हम नहीं चाहते कि ऐसे भाइयोंके न होने देना-यह सब पाठकोंके अधीन नामोको प्रकट करके समाजमें उन्हें और है। और इसलिए जो लोग जैनहितैषीसे प्रेम भी ज्यादा लजित किया जाय--उनकी रखते हैं उन्हें उसके प्रचार का यत्न करना परिणति उनके अधीन है और हमारी चाहिए; ख़ासकर ऐसे समयमें जब कि चित्तवृत्ति हमारे अधीन-तो भी इतना कुछ उलूक प्रकृतिके अन्धकारप्रिय मनुष्योज़रूर बतलाना होगा कि ऐसे लोगोंकी की निर्बल और विकृत दृष्टिमें हितैषीका इस कृपासे जैनहितैषीको गतवर्ष ६००) सुमधुर और हितकर तेज भी नहीं समाता रुपयेके करीब घाटा रहा है; जैसा कि और इसलिए वे उसके अस्तकी भावना पिछले अंकमें प्रकाशक महोदयने ज़ाहिर कर रहे हैं । ऐसे समयमें जैनहितैषीके किया था। इतनी महती हानि उठाकर शुभचिन्तकोंका भी कुछ कर्तव्य ज़रूर भी जैनहितैषी इस वर्ष उसी उत्साहके होना चाहिए। . साथ अपने पाठकोंकी सेवामें उपस्थित पिछले सालके शुरूमें हमने अपने हो रहा है, यह सब प्रकाशक महोदयकी पाठकोसे यह प्रार्थना की थी कि वे इस उदारता, और समाजमें ऊँचे साहित्य बातकी पूरी कोशिश रक्खें कि जैनहितैषीतथा सद्विचारोंको फैलानेकी सत्कामना- के विचार यथावत् रूपसे, सब भाइयोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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