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अङ्क १-२ ]
अनुवाद कर हम उनकी स्तुति करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार शब्दसमूह असंख्य है और वैयाकरणोंने व्याकरणमें शब्दसमूहके संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, किया पद, क्रिया विशेषण अव्यय श्रादि श्रावश्यक भेद नियोजित कर अभ्यासियोंका मार्ग सुगम बना दिया है, उसी प्रकार नय समूहकी संख्या भी गणनातीत होनेसे कुशाग्र-बुद्धि जैनाचार्योंने दीर्घ मननके बाद नयके महान् समूहको सिर्फ सात ही नयों में विभक्त कर दिया। इन सात ही में यावन्मात्र नय भेदोंका श्राविर्भूत हो, ऐसा पृथक्करण किया गया है। ऐसा कोई नय बाकी नहीं रहा जिसका समावेश इन सात नयोंके भीतर न हुआ हो । जिस प्रकार शब्दसमूहके किसी शब्दको संज्ञा श्रादिक उपनाम देने पर व्याकरणके वर्गीकरणोंमेंसे एक अंगका ज्ञान होता है, उसी प्रकार असंख्य विचारोंमेंसे किसी विचारका सात नयोंमेंसे एकाध नयमें समावेश होनेपर उस नय विशेषका ज्ञान होता है । शब्द- समूह के व्याकरणोक्त सम्पूर्ण आठ अंगों का ज्ञान होने पर जिस प्रकार उन अंगों का यथावत् उपयोग करनेमें . कठिनता नहीं होती, उसी प्रकार विचारोद्गार किस नयसे प्रकट किये गये, इसका भली भाँति ज्ञान प्राप्त करनेमें स्याद्वादरूपी विचार व्याकरणके जाननेसे कठिनता नहीं रहती । नयशास्त्र (स्याद्वादअनेकांतवाद) विचारोंका अन्तर्गत रहस्य समझने के लिये एक प्रकारका व्याकरण है। एक ही वस्तुका भिन्न भिन्न अपेक्षा (दृष्टि) से भिन्न भिन्न आभास होता है; क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मविशिष्ट होती है । उसके अनन्त धर्मोसे ( गुणों में से ) किसी ख़ास गुणकी मुख्यता लेकर कथन करना जय (अपेक्षा-विवक्षा-दृष्टि- हेतु - Point) कहलाता है । सम्पूर्ण नयों के भिन्न भिन्न
जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता ।
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कथनको एकत्र करनेसे उस वस्तुका परिपूर्ण ज्ञान होता है । जगत् के समस्त धर्म, जगत् की सब प्रकारकी प्रकृतियाँ -- चाहे वे पारमार्थिक हो, राजनैतिक हों, सामाजिक हो या व्यक्तिगत हों - जुदी जुदी अपेक्षाओं के अवलम्बित मार्ग हैं । सम्पूर्ण अपेक्षाओं को जाननेवाला सर्वश कहलाता है और सामान्य बुद्धिवाले जन जितनी जितनी अपेक्षाओं को ( नयको ) समझें उतने ही उतने श्रंशोंमें, विशेषज्ञ कहलाते हैं । इसी अपेक्षा ज्ञानकी प्रशंसा करते समय श्रार्यशास्त्र कहते हैं "ज्ञानमेव परं बलम्" 'ज्ञान ही परम बल है" । पश्चिमी तत्त्वज्ञ लार्ड बेकन भी कहता है“Knowledge is Power. "ज्ञान ही परम वीर्य-बल-सामर्थ्य पराक्रम है ।" यही समस्त भूमण्डल के तत्त्वशके कथनका सार है । यह ज्ञान वही नयज्ञान, न्यायज्ञान अथवा अपेक्षाज्ञान है । हम ऊपर लिख चुके हैं। कि जिस प्रकार शब्द समूह असंख्य है उसी प्रकार नय समूह भी श्रसंख्य है । साथ ही यह भी लिख चुके हैं कि व्याकरण के सदृश उक्त श्रसंख्य नय समूह, सामान्य रूपसे, भिन्न भिन्न सात नयोंमें गर्भित किया गया है और जगत् के समस्त विचार और प्रवृत्तियाँ भिन्न भिन्न नयोंके प्रवलम्बित मार्ग हैं। नय समूहके समस्त अंशों को संपूर्ण जाननेवाला सर्वश कहलाता है और नय समूहके जितने जितने अंशको जो जाने वह उतने ही अंशमें विशेषज्ञ कहलाता है ।
तीर्थंकर प्रभृति असंख्य नय भेदोंके समूहको सम्पूर्णतया जाननेवाले सर्वश थे । इसलिये उनके श्रागमरूपी महासागरमें समस्त विशेषज्ञोंकी नय रूपी भिन्न भिन्न सरिताएँ अवश्यमेव श्राकर मिल जाती हैं । अन्तमें उक्त उपाध्यायजी ग्रन्थका उपसंहार करते हुए लिखते हैं
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