________________
जैनहितैषी।
[ भाग १५ "सर्वे नया अपि विरोध भृतो मिथस्ते, प्रचार ही है। परन्तु हमारे अधिकांश सम्भूय साधुसमयं भगवन् भजाते। जैनधर्मानुयायी जो अपनेको अनेकान्तभूपा इव प्रतिभा भुवि सार्वभौम
वादी कहते हैं, कट्टर एकान्ती बने हुए हैं पादाम्बुजं प्रधनयुक्ति पराजिता द्राक् ॥"
और अपनी कृपमण्डूक वृत्तिसे अनेका
न्तके वास्तविक प्रभुत्वको जो दीर्घकालसे "हे भगवन् ! ये सब नय परस्पर
लुप्तप्राय हो रहा है, प्रकाशमें लानेकी विरोधी होने पर भी एकत्र होकर श्रापके अपेक्षा नामशेष करनेकी चेष्टामें ही लगे परमागमकी इस प्रकार सेवा करते हैं,
हुए हैं, यह जानकर किसे खेद न होगा ! जिस प्रकार कि राजागण परस्पर विराधा ऐसे लोगोंको अपने अपने सम्प्रदायहोते हुए भी पराजित होकर सावभाम के अतिरिक्त अन्य साहित्यका माध्यस्थसम्राट् (चक्रवर्ती) की चरणसेवामें शीघ्र ।
___ रूपसे अवलोकन करना भी महान ही प्रवृत्त हो जाते हैं।"
मिथ्यात्व और साम्प्रदायिक सिद्धान्तों पाठकगण, सोचिए, जैनधर्मकी अने तथा नियमोंके विपरीत अँचता है; ऐसी कान्तात्मक प्रभुताका उपाध्यायजीने अवस्थामें यदि कोई साहस कर निर्भीक कितना सुन्दरतापूर्वक स्पष्ट उल्लेख किया विचार प्रकट भी करना चाहे तो चारों है। प्राचीन कालमें चक्रवर्ती सम्राट भी तरफसे उसके प्रति अनेक प्रकारके आक्रजैनधर्मके अनेकान्त तत्त्वका अनुसरण कर मण होने लगते हैं। धर्मके ठेकेदार समाजमें पृथ्वीके समस्त राजाओं को अपनी सार्व- शीघ्र ही यह घोषणा कर देते हैं कि भौमिकताके एक सूत्र में सङ्कलित करते अमुक अमुक व्यक्ति धर्मका शत्रु है, उसके थे। जैनधर्मका अनेकान्त सम्राट तुल्य है विचार कोई न माने न सुने और ऐसे और संसारके समस्त धर्मपन्थ जो एका- विचार जिन पत्रों में प्रकाशित होते हों म्तरूप हैं उसकी छत्र-छायामें सङ्कलित उन पत्रोंको भी कोई जैनी न खरीदे । पर राजाओंके समान हैं। संसारके समस्त वास्तव में देखा जाय तो ये धर्मके ठेकेधर्मपन्थ जैनधर्मके ही भिन्न भिन्न नय विशेष दार ही धर्मके हित-शत्रु हैं जो भोली हैं। उनका परस्पर मतविरोध भले ही जनताको अपने पूर्वजोंके धर्मरहस्यका हो और उनके अनुयायी परस्परमें विरोध- विपरीत अर्थ समझाकर और पूर्वजोंके भाव और घृणा रखते हों किन्तु जैनधर्म नामकी दुहाई देकर जैनधर्मके रहे उन सब धर्मपन्थोके भिन्न भिन्न नयोका प्रभुत्वको भी नष्ट भ्रष्ट करना चाहते हैं। वे सङ्कलित समुदाय है। अतएव जैनधर्मानु. लोग अपने दिलमें तो शायद यही सोचते यायियोंको, जो सच्चे अनेकान्ती हैं, हैं कि हम अपने धर्मकी रक्षाका उपाय प्रत्येक धर्मपन्थरूपी नयसे विरोध और कर रहे हैं, परन्तु धर्मकी असलियत घृणाके भाव न रखकर माध्यस्थरूपसे उन्हींकी कृतियोंसे दिन पर दिन नष्ट होती प्रत्येक धर्मपन्थके सिद्धान्त, विचार और जा रही है। प्रवृत्तियोंका अपने नयज्ञानमें स्पष्टीकरण अन्तमें श्रीमद् रायचन्द्रजी काव्यकरना चाहिए । बड़े हर्षकी बात है कि मालाके प्रथम गुच्छकसे, अध्यात्मप्रेमी जगत्के विद्वानोंमें मतान्तर-क्षमता या श्रीश्रानन्दघनजीकी स्तुत्यात्मक एक पद्य परमत-सहिष्णुता बढ़ रही है। इसका रचना उद्धृत करके हम पाठकोंसे प्रेरणा कारण अनेकान्त तत्त्वका अव्यक्त रूपसे करते हैं कि वे उस पर विचार करें।
De
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org