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जैनहितैषी।
[भाग १५ बना देनेवाले एक ईश्वरके माननेकी कुल ही निष्फल हो जाता है और दण्ड देनेहालतमें यही सन्देह बराबर बना रहता वाला न्यायाधीश भी मूर्ख ठहराया जाता है कि न जाने हमको अपने कर्मोंका ही है। इनाम देनेकी भी ऐसी ही बात है। फल मिलेगा या वह सर्वशक्तिमान ईश्वर जब तक इनाम मिलनेबालेको यह नहीं अपने इच्छानुसार ही प्रवर्तेगा। ऐसी बताया जाता कि तेरे अमुक उत्तम कार्यसन्दिग्ध अवस्थामें संसारके जीव निश्चित से प्रसन्न होकर तुझे यह इनाम दिया रुपले धर्मके ऊपर आरूढ़ नहीं हो सकते जाता है तब तक वह इनाम भी कुछ कार्यकिन्तु ईश्वरके इच्छानुसार आकस्मिक कारी नहीं होता और उसका देनेवाला घटनाओंका ही श्रद्धान कर के उद्यमहीन भी मूर्ख समझा जाता है । इसी लिये यदि या स्वच्छन्द हो जाते हैं।
परमेश्वरने जीवोंकी यह नानारूपअवस्थाएँ ___ कर्मोंका फल मिलते रहने और उनके पहले जन्मके कर्मोके फलस्वरूप सदासे जन्म जन्मान्तर धारण करते रहने- ही बनाई होती तो उन सबको ज़रूर यह . . के इस अटल सिद्धान्तके विषयमें हिन्दुओं भी स्पष्ट तौर पर बताया जाता कि तुम्हारे और जैनियों में एक मतभेद ऐसा भारी अमुक अमुक बुरे कर्मोके दण्डस्वरूप . पड़ गया है जिसने मुसलमानों और ईसा- तुम्हारी यह यह बुरी दशा बनाई गई है इयोंको मुँह खोलनेका हौसला दे दिया और अमुक अमुक अच्छे कर्मोके इनामके है। जैनी तो यह मानते हैं कि वस्तु- तौर पर तुम्हारी यह अच्छी दशा की गई खभावानुसार जीवके कर्म ही उसको है; परन्तु यहाँ तो किसी जीवको यह सुख और दुःख पहुँचाते हैं और उसकी सब बातें मालूम नहीं हैं, बल्कि संसारके नानारूप अवस्था बनाते हैं । परन्तु हिन्दू जीवोंको यह भी मालूम नहीं है कि हमारा लोग इसके विपरीत ऐसा मानते हैं कि कोई पहला जन्म था भी या नहीं: यदि एक न्यायकारी ईश्वर ही जीवोंको उनके था तो उसमें हमारी क्या क्या पर्याय थी कर्मोका फल देता है और दण्डस्वरूप या और उस पर्यायमें हमने क्या क्या कर्म इनाम स्वरूप उनको सुखी तथा दुखी किये थे । संसारके जीव तो इन सब बनाता है। हिन्दुओंकी इस मान्यता पर बातोसे बिलकुल ही अनजान मालूम होते मुसलमान और ईसाई यह आपत्ति लाते हैं, जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि ईश्वरने हैं कि जब किसी अपराधीको न्यायालय. जीवोंके कर्मोके दण्डस्वरूप या इनामसे कोई दण्ड दिया जाता है तो अन्धेके रूप उनकी यह दशा नहीं बनाई। किन्तु समान उसको अचानक ही दुःख देना विचित्ररूप संसार रचनेके वास्ते अपनी शुरू नहीं कर दिया जाता बल्कि स्पष्ट स्वतन्त्र इच्छाके अनुसार ही उनकी भिन्न रूपसे यह बताना ज़रूरी होता है कि भिन्न रूप दशा बना दी है। तुम्हारे अमुक अपराधका ही यह दण्ड इसी प्रकार ईश्वरवादी हिन्दुओं पर तुमको दिया गया है जिससे आगेके लिये हमारे मुसलमान और ईसाई भाई यह वह उस प्रकारका अपराध करनेसे डरे भी आपत्ति लाते हैं कि ऐसा कोई न्याया
और दूसरोंको भी उसके दण्डसे शिक्षा धीश नहीं हो सकता जो अपराधीको मिले । यदि अपराधीको इस प्रकार ऐसी सज़ा दे जिससे उसको अपराध उसका अपराध न बताया जाकर वैसे ही करने में और भी ज्यादा सुबिधा हो जाय, दएड दे दिया जाय तो वह दण्ड बिल- वह अधिक अधिक अपराध करना सीख
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