Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 50
________________ .. जैनतिषी। ........ [भाग १५ माननेकी अवस्थामें जो जो बातें आपत्तिरूप हो जाती हैं वे ही जैनधर्मके वस्त- समाज शास्त्रका नवीन स्वभावी सिद्धान्तके अनुसार ज़रूरी सिद्धान्त । नतीजा बन जाती हैं और आपसे आप सिद्ध होती चली जाती हैं। यह सब जैन-- [श्रीयुक्त निहालकरण सेठी, एम. एस. सो.] धर्मका महत्त्व है जो उसके वस्तुस्वभावी जब सारे संसारमें दिन रात उन्नति- . होनेके कारण ही उसमें पाया जाता है का प्रयत्न हो रहा है और भारतवर्ष के और बुद्धि तथा विचारसे काम लेने पर सामाजिक तथा राजनैतिक नेतागण, व्यक्त होता जाता है । विस्तारभयसे हम देशभक्त कवि और लेखक गला फाड़ अपने इस लेखको यहीं समाप्त करते हैं। फाड़कर 'जागो जागो' की ध्वनिसे आशा है कि पाठकगण इसको ध्यानके आकाशको गुंजा रहे हैं और इस अभागे साथ पढ़ेंगे और यदि यह लेख उनको देशकी कुंभकर्णी नींदके न टूटने पर आँसू पसन्द हुआ तो अपनी अपनी सम्मति बहा बहाकर पुनः द्विगुणित बलपूर्वक प्रकट करके हमको उत्साहित करेंगे, 'उठो उठो अब तो उठो' आदि शब्दोंजिससे हम इस प्रकारके अनेक लेखों के द्वारा अपनी सोई हुई जन्मभूमिको द्वारा जैनधर्मका पूरा पूरा महत्त्व प्रकट जगानेका प्रयत्न कर रहे हैं, यहाँ तक करके दिखावे और जगतके लोगोंका भ्रम कि जैन समाजके मतप्राय लोग मिटावें। शोक है कि जैनधर्मके ये सब कभी इस प्रबल ध्वनिके कारण सहसा तात्त्विक रत्न अनेक प्रकारकी रूढ़ियों और बोल उठते हैं 'जागो' उस समय यह प्रश्न प्रवृत्तियोंके परदेमें छिपे पड़े हैं; वे रूढ़ियाँ उपस्थित करना कि जनताका यह प्रयत्न तथा प्रवृत्तियाँ ही सामने दिखाई दे रही उचित है या नहीं वास्तवमें बड़ी हिम्मतहैं और वे ही एक मात्र जैनधर्म मानी का काम है। जैनसमाजके भाग्यसे इस जाने लग गई हैं। इसीसे इस सर्वोत्कृष्ट कठिन कर्त्तव्यको पूर्ण करनेका साहस जैनधर्मकी कुछ भी प्रभावना नहीं होने उसीके एक मासिकपत्र (पद्मावती पुरपाती और संसार भर में इस धर्मके वाल) को हुआ है। उसमें निम्नलिखित माननेवाले मुट्ठी भर जैनियोंकी संख्या शब्दों द्वारा इस महत्त्वपूर्ण किन्तु श्राजदिन पर दिन और भी घटती चली जाती कलके मनुष्योंके अगम्य सिद्धान्तकी है, जब कि अन्य सभी धर्मोंकी संख्या व्याखा की गई है। वृद्धि पर है। ____ 'जीवमात्रमें जैसी जाग्रत और निद्रित अवस्थाएँ हैं समाजको भी वैसी ही संशोधन । जाग्रत और निद्रित अवस्थाएँ हैं। वैशाइस अंकके पृष्ठ ३ पर दूसरे कालम- निकोका कहना है कि जाग्रत अवस्थामें की २६ वीं पंक्तिमें 'नहीं है' शब्दोंके बाद जीव मस्तिष्कसे काम लेते हैं इससे और डैश (-) से पहले निम्नलिखित मस्तिष्कमें थकावट आती है। निद्राके वाक्य छपनेसे रह गया है ; पाठक उसे द्वारा वह थकावट दूर होती है। जिस सुधार ले:-"प्रात्माकी परम विशुद्ध प्रकार शारीरिक परिश्रम करनेसे शरीरका अवस्थाका नाम ही परमात्मा है।" * पद्मावती पुरवाल-श्रावण २४४६-पृष्ठ १३८, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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