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अङ्क १-२ ] जैनेन्द्रके “वस्तेर्ढञ्” (४-१-१५४), “शिलायाढः”, (४-१-१५५ ) "ढच" (४-१-२०६) आदि सूत्रोंको शाकटायनने थोड़ा बहुत फेरफार करके अथवा ज्योंका त्यों ले लिया है । जैनेन्द्रका एक सूत्र है“टिदादिः” (१-१-५३) शाकटायनने इसे ज्योंका त्यों रखकर अपना पहले अध्याय, पहले पादका ५२ वाँ सूत्र बना लिया है। इस सूत्रको लक्ष्य करके भट्टाकलंकदेव अपने राजवार्तिक (१-५-१, पृष्ठ ३७) में लिखते हैं — “क्वचिदवयवे दिदादिरिति ।" और भट्टाकलंकदेव शाकटायन तथा अमोघवर्षसे पहले राष्ट्रकूट राजा साहसतुंगके समयमें हुए हैं, अतएव यह निश्चय है कि कलंकदेवने जो 'टिदादि' सूत्रका प्रमाण दिया है, वह जैनेन्द्रके सूत्रको ही लक्ष्य करके दिया है, शाकटायन के सूत्र - को लक्ष्य करके नहीं । इससे यह सिद्ध हुआ कि शाकटायन जैनेन्द्रसे पीछेका बना हुआ है । अर्थात् जैनेन्द्र वि० सं० ८५० से भी पहले बन चुका था ।
जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी ।
२ – वामनप्रणीत लिङ्गानुशासन नामका एक ग्रन्थ अभी हालमें ही गायकवाड़ ओरिएंटल सीरीजमें प्रकाशित हुआ है । इसका कर्ता पं० वामन राष्ट्रकूट राजा जगत्तुंग या गोविन्द तृतीयके समय में हुआ है और इस राजाने शक ७१६ से ७३६ (वि० ८५१–८७१) तक राज्य किया है। यह ग्रन्थकर्ता नीचे लिखे पद्यमें जैनेन्द्रका उल्लेख करता है ।
व्याडिप्रणतिमथ वाररुचं सचान्द्रं जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । किङ्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेषयुक्तमुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः ॥ ३१ ॥
इससे भी सिद्ध होता है कि वि० सं० ८५० के लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणोंमें गिना जाता था। अतएव
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यह इस समयसे भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए ।
३ - हरिवंशपुराण शक सं० ७०५ (वि० सं० ८४०) का बना हुआ है । इस समय यह समाप्त हुआ है । उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण ( शुभतुंग या साहसतुंग ) का पुत्र श्रीवल्लभ (गोविन्दराज द्वितीय ) राज्य करता था । इस राजाने शक ६६७ से ७०५ तक ( कि० =३२ से ८४०) तक राज्य किया है। इस हरिवंशपुराणमें पूज्यपाद या देवनन्दिकी प्रशंसा इस प्रकार की गई है:रुं(इं)द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि (डि) व्याकरणक्षिणः । देवस्य देववन्द्यस्य न वदते गिरः कथम् ॥३१॥
यह बात निस्सन्देह होकर कही जा सकती है कि जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दि वि० सं० ८०० से भी पहलेके हैं ।
तत्त्वार्थराजवार्तिकमें जैनेन्द्र व्याकरण के ४ - ऊपर बतलाया जा चुका है कि एक सूत्रका हवाला दिया गया है । इसी तरह “सर्वादिः सर्वनाम" (१-१-३५) सूत्र भी जैनेन्द्रका है, और उसका उल्लेख राजवार्तिक अध्याय १ सूत्र ११ की व्याख्यामें किया गया है । इससे सिद्ध है कि जैनेन्द्र व्याकरण राजवार्तिक से पहलेका बना हुआ है । राजवार्तिक के कर्ता अकलंकदेव राष्ट्रकूट राजा साहसतुंग - जिसका दूसरा नाम शुभतुंग और कृष्ण भी है-की सभामें गये थे, इसका उल्लेख श्रवणवेल्गोलकी मल्लिषेणप्रशस्ति में किया गया है और साहसतुंगने शक संवत् ६७५ से ६६० (वि० सं० ८१० से ८३२) तक राज्य किया है। यदि राजवार्तिकको हम इस राजाके ही समयका बना हुआ मानें, तो भी जैनेन्द्र
* देव देवनन्दिका ही संक्षिप्त नाम है । शब्दार्णव चन्द्रिकामे १ -४ -११४ सूत्रकी व्याख्या में लिखा है- "देवोप कमनेकशेष व्याकरणम् ।"
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