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नह १-२ ] पेशीसमूह क्षयको प्राप्त होता है और आहार ग्रहण तथा विश्राम द्वारा वही पेशी समूह पूर्णता प्राप्त करता है, निद्राके द्वारा चिन्ताक्लिष्ट मस्तिष्ककी भी हूबहू उसी प्रकार पूर्ति होती है । इस लिये शरीर धारण वा रक्षाके लिये निद्रा जीवमात्रको अत्यावश्यक है। हमेशा जागते रहने शरीरका अवश्य विनाश होगा ।
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'समाजरक्षा और उसकी पुष्टिके लिये भी निद्रा वा विश्राम अत्यन्त श्रावश्यक है । आर्यसमूह दीर्घ कालके जागरण के बाद अब निद्रा वा विश्राम ले रहा है । यह समाजकी मृत्यु नहीं है, निद्रा वा विश्राम मात्र है । विश्रामकें बाद जब समाजकी थकावट दूर हो जायगी तब स्वाभाविक नियमानुसार समाजकी निद्रा भंग हो जायगी । इस निद्राभंगके बाद समाज फिर नूतन उत्साहसे नूतन शक्तिके साथ कार्यक्षेत्र में प्रवेश करेगा। जिस प्रकार पूरी थकावट दूर होने से पहले, अर्थात् कच्ची नींदमें यदि किसीको जगा दिया जाय तो वह फिर सोनेकी बारंबार चेष्टा करता है, उसी प्रकार यदि श्रस्वाभाविक रूपसे समाजकी निद्रा भंग की जाय तो वह साधारण स्वस्थ समाजकी तरह कार्य परं तत्परं महीं रह सकती; वह बराबर निश्चेष्ट होकर विश्राम लेना चाहती है ।'
जैन समाज ! खूब खुर्राटे ले लेकर सो, क्योंकि तेरे इस सुपुत्रकी रायमें तेरे स्वास्थ्य के लिये इस समय जाग जाना 'अत्यन्त हानिकारक है !!! किन्तु पद्मावतीपुरवाल ! अब तुम भी सो जाओ क्योंकि 'हमेशा जागते रहने से शरीरका अवश्य विनाश होगा' और तब बेचारा जैन समाज तुम्हारे जैसा सच्चा हितैषी कहाँ पावेगा ! इसके अतिरिक्त इस समय अधिक प्रलाप करनेसे समाजकी लाभदायक नींदके भी असमय टूट जानेका डर है !
जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी |
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जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी |
[ लेखक – श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी । ] ( गतांक से आगे । )
२- शब्दार्णव प्रक्रिया । यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके नामसे छुपी है; परन्तु हमारा अनुमान है कि इसका नाम शब्दार्णवप्रक्रिया* ही होगा। हमें इसकी कोई हस्त लिखित प्रति नहीं मिल सकी। जिस तरह अभयनन्दिकी वृत्तिके बाद उसीके: श्राधारसे प्रक्रियारूप पंचवस्तु टीका बनी है, उसी प्रकार सोमदेवकी शब्दार्णवचन्द्रिकाके बाद उसीके श्राधारसे यह प्रक्रिया बनी है । प्रकाश कौने इसके कर्ता का नाम गुणनन्दि प्रकट किया है; परन्तु जान पड़ता है कि इसके अन्तिम ठोकौमें गुणनन्दिका नाम देखकर ही भ्रमवश इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि समझ लिया गया है । वे श्लोक नीचे दिये जाते हैं। :-- सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनाभोन्नतं निर्ज्ञातं बहुतद्धितं कृतमहाख्यातं यशः शाकिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयं नावत्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया १ दुरितमदेभनिशुंभकुम्भस्थल भेदनक्षमोग्रनखैः । राजन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिरं जीयात् ॥ १ सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सने प्रा (दि) ग्वासस्सुचरित्रवानमलक: कांतो विवेकी प्रियः । सोयं यः श्रुतकीर्तिदेवयतिपो भट्टारकोत्तंसको म्यान्मम मानसे कविपतिः सद्राजहंसश्चिरम् ॥ ३
छपी हुई प्रतिके अन्त में " इति प्रक्रियावतारे कृद्विषिः षष्ठः समाप्तः । समाप्तेयं प्रक्रिया" इस तरह छपा है। इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं जान पड़ता ।
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