________________
पहले--वि.सं. १७ से पहले-किसी ईसवी सनकी पाँचवीं शताब्दिक उत्तरार्ध समय बना है।
(विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्ध) के ३--जैनेन्द्रका और एक सूत्र है-- लगभग होना चाहिए । यह तो पहले ही 'गुरूदयाद्भाधुक्तेऽब्द। (३-२-२५)। शाक- बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना टायनने भी इसे अपना २-४-२२४ वाँ सूत्र ईश्वरकृष्णके पहले अर्थात् वि० सं०५०७ बना लिया है। हेमचन्द्र ने थोड़ासा परि- के पहले नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें वर्तन करके 'उदितगुरोर्भायुक्तेऽब्दे' (६-२- वार्षगण्यका उल्लेख है। २५)बनाया है। इस सूत्रमें द्वादशवर्षात्मक पाठक महाशयने इन प्रमाणों में हस्ताबार्हस्पत्य संवत्सरपद्धतिका*उल्लेख किया देयेनुद्यस्तेये चेः', 'शरद्वच्छुनकदर्भाग्निगया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और शर्मकृष्णरणोत् भृगुवत्साग्रायणवृषगणकदम्बवंशी राजाओंके समय तक प्रचलित ब्राह्मणवसिष्ठे' और 'गुरुदयाद् भाधुक्ते थी, इसके कई प्रमाण पाये गये हैं। ऽब्दे' सूत्र दिये हैं; परन्तु ये तीनों ही प्राचीन गुप्तोंके शक संवत् ३६७ से ४५० जैनेन्द्र के असली सूत्रपाठमें इन रूपोंमें नहीं [वि० सं०४५४ से ५८५] तक के पाँच हैं, अतएव इनसे जैनेन्द्रका समय किसी ताम्रपत्र पाये गये हैं । उनमें चैत्रादि तरह भी निश्चत नहीं हो सकता है। संवत्सरोका उपयोग किया गया है और हाँ, यदि जैनेन्द्रकी कोई स्वयं देवइन्हीं गुप्तोके समकालीन कदम्बवंशी राजा नन्दिकृत वृत्ति उपलब्ध हो जाय, जिसके मृगेशवर्माके ताम्रपत्रमें भी पौष संवत्सर- कि होनेका हमने अनुमान किया है, और का उल्लेख है। इससे मालूम होता है कि उसमें इन सूत्रोंके विषयको प्रतिपादन इस बृहस्पति संवत्सरका सबसे पहले करनेवाले वार्तिक आदि मिल जायेंगोख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता मिल जानेकी संभावना भी बहुत है तो हैं और इसलिए जैनेन्द्रकी रचनाका समय अवश्य ही पाठक महाशयके ये प्रमाण
• इस संवत्सरकी उत्पत्ति बृहस्पितिकी गति परसे बहुत ही उपयोगी सिद्ध होंगे। हुई है, इस कारण इसे बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं। पाठक महाशयके इन प्रमाणोंके ठीक जिस समय यह मालूम हुआ कि नक्षत्रमण्डलमेंसे बृह- न होने पर भी दर्शनसारके और मर्कराके स्पतिकी एक प्रदक्षिणा लगभग १२ वर्ष में होती है, उसी ताम्रपत्रके प्रमाणसे यह बात लगभग समय इस संवत्सरकी उत्पत्ति हुई होगी, ऐसा जान पड़ता निश्चित ही है कि जैनेन्द्र विक्रमकी छठी है। जिस तरह सर्यकी एक प्रदक्षिणाके कालको एक सौर
शताब्दीके प्रारंभकी रचना है। बर्ष और उसके १२३ भागको मास कहते हैं, उसी तरह इस पद्धतिमें गुरुके प्रदक्षिणा कालको एक गुरुवर्ष और जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य । उसके लगभग १२ वें भागको गुरुमास कहते थे। सर्य
.. पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस सानिध्यके कारण गुरु वर्षमें कुछ दिन अस्त रहकर जिस . नक्षत्र में उदय होता है, उसी नक्षत्रके नाम गुरुवर्ष के मासों. तरह अपनेसे पहलेके वैयाकरणोंके नामोके नाम रखे जाते थे। ये गुरुके मास वस्तुतः सौर वर्षोंके का नाम है, इस कारण इन्हें चैत्र संवत्सर, वैशाख संवत्सर सूत्रोंमें भी नीचे लिखे प्राचार्योंका उल्लेख मादि कहते थे। इस पद्धतिको अच्छी तरह समझनेके मिलता है:लिए स्वर्गीय पं. शंकर बालकृष्ण दीक्षितका 'भारतीय
-राद् भूतबलेः । ३.४.८३ । बीति शास्त्राचा इतिहास' और डा. फ्लीटके 'गुप्त इन्स्किप्शन्स में इन्हीं दीक्षित महाशयका अँगरेजी निबन्ध
२-गुणे श्रीदत्तस्यस्त्रियाम् | १.४.१४। पवना चाहिए।
३-वृषिमृजां यशोभद्रस्य । २.१-९९ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org