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जैनहितैषी । .
भीग १५ वि० सं० ८०० से पहलेका बना हुआ होगा, अतएव उसका जो राज्यकाल बतसिद्ध होता है।
लाया गया है, वह अवश्य ठीक होगा। उक्त प्रमाणोंसे यह निश्चय होगया कि और जिन वदननन्दिके समय उक्त ताम्रजैनेन्द्र के कर्ता विक्रम सं०:०० से पहले पत्र लिखा गया है, संभवतः उन्हीं की हुए हैं। परन्तु यह निश्चय नहीं हुआ कि शिष्य-परम्परामें बल्कि उन्हींके शिष्य या कितने पहले हुए हैं। इसके लिए आगेके प्रशिष्य जैनेन्द्र के कर्ता देवनन्दि या पूज्यप्रमाण देखिए।
पाद होंगे । क्योंकि ताम्रपत्रकी मुनिमर्करा (कुर्ग) में एक बहुत ही
परम्परामें नन्द्यन्त नाम ही अधिक हैं, प्राचीन ताम्र-पत्र* मिला है। यह शक
और इनका भी नाम नन्द्यन्त है। इतना संवत् ३८- (वि० सं०५२३) का लिखा
ही नहीं बल्कि इनके शिष्य वज्रनन्दिका हुआ है। उस समय गंगवंशीय राजा
नाम भी नन्वन्त है; अतः जबतक कोई अविनीत राज्य करता था । अविनीत
- प्रमाण इसका विरोधी न मिले, तबतक.*.. राजाका नाम भी इस लेखमें है। इसमें हमे देवनन्दिको कुन्दकुन्दानाय और कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगणके मनियो- देशीयगणके प्राचार्य वदननन्दिका शिष्य की परम्परा इस प्रकार दी हुई है:-गुण- या प्रशिष्य माननेमें कोई दोष नहीं चन्द्र-अभयनन्दि--शीलभद्र--शाननन्दि
- दिखता। उनका समय विक्रमकी छठी गुणनन्दि और वदननन्दि । पूर्वोक्त अवि- शताब्दिका प्रारम्भ भी प्रायः निश्चित मीत राजाके बाद उसका पत्र दार्विनीत समझना चाहिए। राजा हुआ है । हिस्ट्रीश्राफ कनड़ी लिट
६-इस समयकी पुष्टि में एक और भी रेचर नामक अँगरेजी ग्रन्थ और 'कर्ना- अच्छा प्रमाण मिलता है। वि० सं०880
___ में बने हुए 'दर्शनसार' नामक प्राकृत टककविचरित्र' नामक कनड़ी ग्रन्धके । अनुसार इस राजाका राज्यकाल ई० सन्।
__ ग्रन्थमें लिखा है कि पूज्यपादके शिष्य ४२ से ५१२ (वि० ५३६-६६) तक है।
- वज्रनन्दिने वि० सं०५२६ में दक्षिण मथुरा यह कनड़ी भाषाका कवि था। भारविक या मदुराम द्राविडसंघकी स्थापना कीःकिरातार्जुनीय काव्यके १५ वें सर्गकी सिरिपुज्जपादसीसो दाविसंघस्स कारगो दुहो। कनडी टीका इसने लिखी है। कर्नाटक- णामेण वज्जणंदी पाहुवेदी महासत्थ्यो । कविचरित्रके कर्ता लिखते हैं कि यह राजा पंचसए छब्ब से विक्कमरायस्स मरणपत्स्सा । पूज्यपाद यतीन्द्रका शिष्य था । अतः दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामाहो ॥ पंज्यपादको हमें विक्रमकी छठी शताब्दि- इससे भी पूज्यपादका समय वही के प्रारंभका प्रन्थकर्ता मानना चाहिए। छठी शताब्दिका प्रारंभ निश्चित होता है। मर्कराके उक्त ताम्रपत्रसे भी यह बात प्रष्ट होती है। वि० संवत ५२३ में अविनीत प्रो० पाठकके प्रमाण । राजा था। इसके १६ वर्ष बाद वि० सं० सुप्रसिद्ध इतिहास पं० काशीनाथ ५३६ में उसका पुत्र दुर्बिनीत राजा हुआ बापूजी पाठकने अपने शाकटायन ग्याक.इंडियन 'एण्टिग्वेरी जिल्द १, पृष्ठ ३६३-६५ हैं जिनसे ऐसा भास होता है कि जैनेन्द्रके
रणसम्बन्धी लेखमें* कुछ प्रमाण ऐसे दिये और एपिग्राफिका कर्नाटिका, जिल्द १ का पहला लेख। पारनरसिंहाचार्य एम० ए० कृत।
देखो इंडियन एएिटक्वेरी जिन्द ४३,१४२०५-१२। For Personal & Private Use Only
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