Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ जैनधर्मका महत्त्व। बिगाड़ दीजिससे वह और भी ज्यादा तेज़ दण्ड देना शोभा देता है जिससे वह जीव शराब पीने लग गया और अधिक फिर क्रोध न करने पावे। परन्तु यदि अधिक पागल होता चला गया। हाँ, यदि न्यायकारी ईश्वरके द्वारा कर्मोका फल शराब स्वयं तो किसी पर किसी प्रकारका मिलना न माना जाय बल्कि जैन सिद्धाकोई असर पैदा न कर सकती बल्कि न्तानुसार वस्तुस्वभावसे ही संसारका . कोई न्यायकारी संसारका प्रबन्धकर्ता सब कार्य होता हुआ स्वीकार किया जाय ईश्वर ही शराब पीनेवालेकी दुर्गति दण्ड- तब तो क्रोध करनेका यही फल होगा कि स्वरूप बनाया करता तो वह ज़रूर उसको क्रोधका अधिक अभ्यास हो जायगा और ऐसी ही सज़ा देता जिससे वह आगेको जितना जितना अधिक क्रोधं किया जायगा शराबका नाम भी न लेता और उससे और जितनी जितनी बार किया जायगा कोसों दूर भागता फिरता। न्यायकारी उतना ही उतना अधिक अभ्यास और ईश्वरके द्वारा शराब पीनेके दण्डस्वरूप संस्कार पड़ता चला जायगा; इसी शराब पीनेवालेकी यह दशा कभी नहीं कारण जो जीव इस जन्ममें स्वभावसे बनाई जा सकती कि वह और भी ही अधिक क्रोधी हैं अर्थात् जन्मसे ही ज्यादा तेज़ शराब पीने लग जाय और क्रोध करनेका स्वभाव लेकर आये हैं अधिक अधिक शराब पीनेके अलावा उनकी बाबत यही सिद्धान्त निश्चित होता अन्य अनेक अपराध भी करने लगे और है कि पूर्व जन्ममें उन्होंने अधिक क्रोध उलटी ही उलटी चाल चलने लग जाय। किया है जिससे उनको क्रोध करनेका परन्तु होता ऐसा ही है, जिससे स्पष्ट ऐसा भारी अभ्यास हो गया है कि इस सिद्ध है कि कोई न्यायकारी जगदीश जन्ममें भी वह संस्कार उनके साथ श्राया शराबका असर नहीं कराता है किन्तु है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ आदिक शराब ही अपने स्वभावानुसार पीनेवाले अन्य सब प्रकारके भावोंकी बाबत भी को पागल बनाती है जिससे उसकी बुद्धि ऐसा ही निश्चय किया जाता है। और जिन भ्रष्ट होकर वह अपने ही हाथों अपना जीवोंके चित्तकी वृत्ति इस समय पापों सत्यानाश करने लग जाता है और हानि- तथा अपराधोंकी ही तरफ़ जाती है, उनकी लाभके विचारको छोड़ बैठता है। बाबत यही मानना पड़ता है कि पिछले किसीन्यायकारी ईश्वरके द्वारा कौं- जन्म में उन्होंने अपनी ऐसी ही आदत बनाई का फल मिलना जैनधर्म नहीं मानता, है जो उनको पापोंकी ही तरफ़ ले जाती है इसलिये उपर्युक्त प्रकारका कोई आक्षेप और अपराध करनेकी ही रुचि उत्पन्न उस पर नहीं पड़ सकता; बल्कि उसके करती है । इस प्रकार कारण और कार्यके वस्तुस्वभावी प्राकृतिक सिद्धान्तोंके अनु- सम्बन्धको माननेसे और कारणके अनुसार सभी बातें ठीक बैठ जाती हैं और सार ही कार्यकी उत्पत्ति जाननेसे जीवकोई आपत्ति नहीं आने पाती। यदि की प्रत्येक दशाकी बाबत उसके पूर्वजन्मयह माना जाय कि कोई न्यायकारी ईश्वर के कृत्योंका अनुमान करना होता है और ही कर्मोका फल देता है तब तो किसी प्रागेको अच्छे अच्छे कारणोंके बनाने जीवके क्रोधरूपी अपराधका वह यह फल और अच्छा ही अच्छा अभ्यास डालनेका नहीं दे सकता कि वह अधिक अधिक उत्साह बढ़ता है। क्रोधी हो जाय किन्तु उसको तो ऐसा ही . इस तरह एक न्यायकारी ईश्वर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68