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जैनधर्मकी प्रकान्तात्मक प्रभुता। . गुजराती पद्य
अर्थात् सुगत (बुद्ध) प्रणीत बौद्धदर्शन षड्दर्शन जिन भंग भणिजे,
और जैमिनि प्रणीत पूर्व और व्यास न्यास षडंग जो साघरे । प्रणीत उत्तर मीमांसा (वेदान्त ) मिलानमि जिनना चरण उपासक,
कर मीमांसा दर्शन जिनेश्वरके दो हाथ षड्दर्शन आराधेरे ॥ षड़.॥
हैं । क्योंकि जैनसिद्धान्त में वस्तुकी
स्वभावरूप और विभावरूप ऐसी दो जिन सुर पादप पाय वखाणु,
प्रकारकी पर्याय मानी हैं और पर्यायमें सांख्य योग दोय भेदेरे ।
सदैव उत्पाद व्यय हुआ करता है । आत्मसत्ता विवरण करतां,
इस दृष्टिसे पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा लहो दुग अंग अखेदेरे ॥षड़.॥
बौद्धदर्शन भी जिनेश्वरका एक अंग कहा भेद अभेद सुगत मिमांसक,
है। पर्यायसे आत्मा क्षण क्षण बदलती जिनवर दोय कर भारी रे । रहती है, यह कहना सर्वथा असत्य नहीं, लोकालोक अवलम्बन भजिये,
पर कई अंशों में सत्य है। व्यवहार नयसे गुरुमग थी अवधारी रे ॥षड़॥
भी.पर्यायान्तर कालसे श्रात्माको देखते लोकायत कूख जिन वरनी,
हुए बौद्धदर्शन तथ्य रूप है। मीमांसक अंश विचार जो कीजे रे ।
आत्माको एक, नित्य, अबद्ध, त्रिगुण
अबाधित ऐसा मानते हैं । वस्तु स्वभावतत्त्व विचार सुधारस धारा,
की दृष्टिसे निश्चय नयकी अपेक्षा यह बात गुरुगम विण किम पीजे रे॥षड़॥
ठीक है। क्योंकि सब आत्माएँ सत्तामें जैन जिनेश्वर उत्तम,
एक समान होनेके कारण प्रात्मा एक ही . अंग रंग बहिरंग रे ।
गिना जाता है। आत्माको बन्ध नहीं, इस .. अक्षर न्यास धरा आराधक,
दृष्टिसे शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा मीमांसाआराधे धरी संगे रे ॥षड़.॥ दर्शनको भी जिनेश्वरका एक अंग कहा भावार्थ-षडदर्शन जिनेन्द्र भगवान्- है। बौद्धदर्शन व्यवहार नयपूर्वक सिद्ध के भिन्न भिन्न अङ्ग हैं। जो लोग जिनेन्द्र है इसलिये बायाँ हाथ और मीमांसा दर्शन भगवान् श्रीनेमिप्रभुके चरण-उपासक हैं निश्चय नयसे योग्य है, इसलिये दाहिना अर्थात् सच्चे जैन हैं वे जैन शासनमें षड़- हाथ कहलाता है। दर्शनका आविर्भाव देखते हैं और जिनेन्द्र श्रीश्रानन्दधनजीने भिन्न भिन्न दर्शनोंभगवान्की आकृतिमें-छः अंगोंमें-छः के प्रति समदृष्टि रखते हुए जिनेश्वरके दर्शनोंकी स्थापना घटित होती है। जिने- अंग मान अपनी मतान्तर-रहितता प्रकट श्वरके कल्पतरु समान दो पैर सांख्य की है। परन्तु विशेष बात तो यही है कि और योग ये दो अंग हैं। ये दोनों अंग चार्वाक अथवा नास्तिकवादियोंका भी आत्माकी सत्ता मानते हैं । इस अपेक्षासे खण्डन न करते हुए जिन दर्शनमें मिलाने. सांख्य और योग दो पैर रूप कहे हैं। की परम गम्भीर शैली स्वीकार की है। इससे स्वयं तो मतान्तर-रहितता प्रकट श्रापने चार्वाक मतको श्रीजिनेश्वरका पेट होती है किन्तु पाठकोंको भी रचयिता (उदर ) माना है, वह इस हेतुसे कि .आदेश करते हैं कि इस बातको नेदरहित चार्वाक जगत्का कोई कर्ता नहीं मानते, होकर ग्रहण करो । भेदवादी, अभेदवादी वस्तु-स्वभावके अनुसार अनादि कालसे
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