Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ जैनधर्मका महत्त्व। रूप नग्न मूर्तियोंके दर्शनसे वैराग्यकी बताते हो और वैरागियोंको ही धर्मकी प्रेरणा पा सकते हैं। जब सभी धर्मों में ऊँची चोटी पर चढ़ा हुआ ठहराते हो, एकमात्र वैराग्य परम धर्म माना जाता इतना ही नहीं किन्तु, बात बातमें संसारहै और वैरागी साधुओंके दर्शनमात्रसे को अस्थिर और नाशवान् बताकर उसकी संसारी मनुष्यों का बहुत कुछ कल्याण तरफ़ मन न लगानेका ही राग गाते हो होना समझा जा सकता है तब परम वे यदि ऐसी महाराग रूप मूर्तियाँ बनावें औसपनयमतियाँ तो सभी मतोंके और परम वैराग्य रूप नग्न मर्तियोके धर्ममन्दिरों में विराजमान होनी चाहिएँ दर्शनसे फायदा न उठावें तो यह बड़े ही थीं, जिनके दर्शनोंसे संसारी जीवोंका श्राश्चर्यकी बात है। जान पड़ता है, ऐसे मोह कम होकर उनका माया-जाल टूटता लोगोंने धर्मको अभी तक पहचाना ही और संसारकी नाशवान् वस्तुप्रोसे स्नेह नहीं। किन्तु एकमात्र पक्षपातके वश कम होकर अपनी आत्माके कल्याणकी होकर ही वे धर्म धर्म चिल्ला रहे हैं और बातें उन्हें सूझती । परन्तु नहीं मालूम पक्षपातके कारण ही किसी एक धर्मका क्यों हमारे अन्य मतवाले भाई परम अनुयायी होना उन्होंने स्वीकार किया है। वैराग्य रूप नग्न मूर्तियोंसे लाभ नहीं जन्म जन्मान्तर और लोक परलोकके उठाते और उनके स्थानमें शस्त्रधारी माननेके विषयमें इस समय मतमतान्तरोंयोद्धाओंकी मूर्तियाँ बनाकर, स्त्रीपुरुषों में बहुत ज्यादा भेद चल रहा है । मुसलके प्रेमकी मूर्तियाँ संजाकर, अथवा काली, मान और ईसाई तो कहते हैं कि जीवोंचण्डी आदि देवियोंकी भयङ्कर मूर्तियाँ का न तो कोई पहला जन्म था और स्थापित करके धर्मसे क्या लाभ उठाना न उनके भले या बुरे पहले कोई कर्म ही चाहते हैं और दर्शकोंके हृदयमें क्या भाव थे जिनके फलस्वरूप उनको इस जन्म में उत्पन्न करानेकी उनकी इच्छा है। सुखी, दुखी, अमीर, गरीब, बली, निर्बल, ___ यदि कोई ऐसा मत हो जो युद्धको रोगी, निरोगी बनाया गया हो, किन्तु ही धर्म बताता हो और अपने अनुया- एक सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सब जीवोंयियोंमें युद्धका ही जोश फैलाना चाहता को, अपनी स्वतन्त्र इच्छाके अनुसार, हो, तो उस मतमें बेशक योद्धाओकी सुखी, दुखी, राव और रक नाना कप मूर्तियाँ बनाई जानी चाहिएँ और नाना बनाता रहता है और उसका ऐसा ही प्रकारके शस्त्रोंके द्वारा उन मूर्तियोंको दृष्टान्त है जैसा कि मनुष्य कपड़ा बुनकर सजाना चाहिए। इसी प्रकार जो मत अपने स्वच्छन्द इच्छानुसार उसके एककी मोह और मायाको ही धर्म बताता हो टुकड़े की तो टोपी बना लेता है और एक उसको बेशक ऐसी ही मूर्तियाँ बनानी लँगोटी; अथवा पहाड़से पत्थर लाकर या चाहिएँ जिनके देखनेसे माया तथा मोह मिट्टीकी इंटें पकाकर अपने इच्छानुसार ही उत्पन्न हो और हृदयमें स्त्रीपुरुषके कुछ पत्थर और इंटोंसे तो पूजाकी पवित्र आपसके प्रेमका ही सञ्चार हो। और जो वेदी बनाता है और कुछ पत्थर तथा लोग मनुष्यको महा भयङ्कर बनाना ही इंटोसे मलमूत्रके त्यागनेका संडास बनधर्मका उद्देश्य समझते हों उन्हें भयङ्कर वाता है । इस प्रकार ये मुसलमान और रूपवाली मूर्तियोंके ही दर्शन करने ईसाई लोग जीवोंके पिछले कर्मोंके बगैर चाहिएँ । परन्तु जो धर्मवैराग्यको ही मुख्य ही ईश्वरके इच्छानुसार उनकी नाना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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