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महितपी।
[भाग १५ जगत्में उत्पत्ति, स्थिति और लय हुआ जैनधर्मका महत्व । करता है। यह बात जैनसिद्धान्तके अविरुद्ध है। जैनदर्शनको उत्तम अंग अर्थात् (ले० बाबू सूरजभानजी वकील ।) मस्तक (सिर) माना है। इस प्रकार षड़ संसारमें जितने धर्म इस समय दर्शन जैनधर्मके भिन्न भिन्न अंग प्रतीत प्रचलित हैं वे चाहे और कुछ भी गीत गावे, होते हैं । यही जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक कैसे ही खेल बनावें और तमाशे दिखावें प्रभुता है ।*
किन्तु उन सबमें त्याग-वैराग्य ही सबसे उत्कृष्ट माना जाता है और वह मनुष्य
संसार भर के वास्ते पूजनीय हो जाता पक्षपात-दृष्टि गुण दोषोंका विवेक है जो संसारसे मुँह मोड़कर उसके सर्व नहीं होने देती। वह मनुष्यको हठग्राही प्रकारके विषय भोगोंको लात मार साधु बना देती है। उसमें श्रद्धाके न होते हुए या संन्यासी बन जाता है और मान, भी, कषायवश, किसी बात पर व्यर्थका माया, लोभ, क्रोध आदि कषायों को दबाआग्रह किया जाता है और प्राग्रही मनुष्य कर अपनी आत्मामें लीनता प्राप्त कर युक्तियोंको खींच खाँचकर उस ओर ले लेता है वा परम पिता परमात्माका ध्यान जानेकी चेष्टा किया करता है जिधर लगाता है। यही सर्वमान्य वैराग्य धर्म जैन उसकी मति ठहरी हुई होती है। धर्मका प्रधान लक्षण है और इसमें अन्य
इसके विपरीत, अपक्षपात-दृष्टि गण धर्मोसे यह विशेषता है कि वह साधु दोषों के विवेकमें प्रधान सहायक है। वह और गृहस्थ, गुरु और शिष्य, मुनि और मनुष्यको न्यायी, नम्र और गुणग्राहक श्रावक अर्थात् उन सभी मनुष्योको, जो बनाती है। उसके कारण सत्परुषको. धर्मके मार्ग पर कदम रखना चाहे और परीक्षा द्वारा सुनिर्णीत होनेपर, अपनी किचित् मात्र भी धर्म साधन करना चाहें, पूर्वश्रद्धा तथा प्रवृत्तिको बदलने में कळ त्याग-वैराग्यका ही उपदेश देता है और भी संकोच नहीं होता। वे अपनी बद्धिको अव्वल से आखिर तक अपने सम्पूर्ण वहाँ तक ले जाकर स्थिर करते हैं जहाँ स्वरूपके भीतर त्याग या वैराग्यकी ही नीव तक युक्ति पहुँचती है-अर्थात, उनकी पर खड़ी करता है; त्याग-वैराग्यको ही मति प्रायः युक्त्यानुगामिनी होती है। यामिती तो वह अपना असली उद्देश्य बताता है और
इसीको धार्मिक मनुष्यका लक्ष्य ठहराकर --खंड विचार।
इसीका साधन उसके योग्यतानुसार उसको सिखाता है और आहिस्ता आहिस्ता उसे आगे बढ़ाकर परम वैराग्य की ही तरफ़ ले जाता है । इसी एक उद्देश्य
की पूर्तिके लिये जैनधर्मने गृहस्थी श्रावक
- के ग्यारह दर्जे नियत किये हैं, मानों परम * इस लेख के उत्तरार्द्ध में न्यायकर्णिका नामकी गुजराती पुस्तकसे बहुत कुछ सहायता ली गई है अतएव
वैरागी मुनी अवस्था तक पहुँचने के वास्ते न्यायकर्णिकाके गुजराती अनुवादक तथा प्रकाशक प्रसिद्ध
धर्मकी सीढ़ी (नसैनी) में ११ डंडे लगाये पं० लालन और मि० मोहनलाल देसाई बी० ए० एल० हैं, जिन पर कदम रखते रखते गृहस्थ . एल० बी० इन दोनों महाशोका लेखक अत्यन्त कृतज्ञ है। बड़ी आसानीसे ऊपरको चढ़ा चला जा
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