Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ अङ्क १-२) जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता। वह चाहे बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, व्यवहार करना अप्रशस्त मालूम होने लगा, विष्णु हो या महेश ही क्यों न हो। बड़े बड़े राजाओमे अपार विद्वेष फैला ऊपरके इस कथनसे हमारा अभि- और परस्पर युद्ध होकर उनकी शक्तियाँ प्रायः यह सूचित करनेका है कि प्राचीन निर्बल होने लगी। जिनकी शक्ति अत्यन्त समयमें जैनधर्म जातिवाचक या सम्प्र- निर्बल हो चुकी वे दूसरोंका उत्कर्ष देखनेदाय-विशेष नहीं था किन्तु अन्यान्य मतों में राज़ी न हुए, किन्तु विदेशियोंको तथा सिद्धान्तोंकी पारस्परिक विरुद्धता निमंत्रण देकर उनकी सहायतासे अपनी मिटाकर उन सबको एकताके सूत्र में सञ्चा- तथा समस्त भारतवर्ष को स्वतंत्रता पर लित करनेवाला और प्राकृतिक सत्यका आघात पहुँचाने में उन्हें खुशी हुई, जिसका प्रतिपादक एक वैज्ञानिक मार्ग था, जिसे फल हम अाज देख रहे हैं । विशेष प्राश्चर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ आदि और अत्यन्त खेदकी बात यह है कि जैनप्रत्येक उच्च-नीच वर्ण और प्रत्येक धर्म- धर्मानुयायियोंने भी अनेकान्तकी सार्वपन्थके मनुष्यमात्रको अपनानेका समान भौमिकतासे अपरिचित होकर अनैक्य अधिकार था। उस समयके विद्वानों में बढ़ाने में ही उसका उपयोग किया है। प्रायः अपने अपने मतका विशेष दुराग्रह उसीका फल यह है कि वर्तमानमें दिगम्बर, नहीं था। वे सत्य सिद्धान्त और सत्य श्वेताम्बर, स्थानकवासी और फिर उसीमार्गको विवेककी कसौटी पर परखकर के अन्तर्गत अनेक संघ और पन्थ देख शीघ्र ही स्वीकार कर लेते थे। पड़ते हैं । अपने धर्मरूपी शरीरके एक परन्तु खेदकी बात है कि जैसे धर्म- एक अंगको ही सत्य मान और बाकी का अनेकान्तात्मक प्रभुत्त्व भारतवर्ष में अंगोंको मिथ्या जान अथवा शरीरके एक कम होता गया वैसे ही मत, पंथ, वर्ण अंगको ही उपादेय और दूसरे अंगोंको और जातिभेद बढ़ता गया और परस्पर हेय जानकर एकांती बन अनेकांतवादिताउच्च-नीच, निंदा-स्तुति, तथा ईर्ष्याके भाव का जो शोर अभी तक मचाया गया है वह फैल गये जिन सबके कारण पक्षपात, कहाँ तक प्रशस्त है, इसपर सभी जैनी दुराग्रह, मिथ्याभिमानं और अनैक्यकी कहलानेवाली जनताको विचार करना वृद्धि हो गई। यहाँ तक कि. एक ही धर्म- चाहिये। मनुष्य शरीरके एक छोटेसे में अनेक सम्प्रदाय और पन्थ उत्पन्न हो छोटे अंगद्वारा भी, जो कभी कभी व्यर्थ गये और प्रत्येक पन्थवाले अपने अपनेको अँचने लगता है, कोई न कोई कार्य सत्यवादी और दूसरोंको मिथ्यावादी शरीरकी रक्षा और पोषणका अवश्य समझने लगे। परस्पर खूब मार काट हुश्रा करता है। पैरमें ज़रासा काँटा लग और झगड़े होने लगे, एकको दूसरेका जाने पर समस्त शरीरमें एक प्रकारकी उत्कर्ष अच्छा नहीं मालूम होता था, इस. हलचल मच जाती है और काँटा लगनेके लिये दूसरेका उत्कर्ष घटानेके उपाय सोचे स्थानमें शरीरका दूसरा अंग उसके सहाजाने लगे।अन्तमें ईर्ष्या, मत्सर और द्वेषका यतार्थ पहुँचता है और यह कार्य हाथके प्रभाव धार्मिक भावोंके बाहर सामाजिक द्वारा मस्तिष्क कराता है। यदि मस्तिष्क और राजनैतिक क्षेत्रमें और भी तेजीसे अपने पैरको हेय जान या मिथ्या मानकर फैल गया। एक एक वर्णमें अनेक जातियाँ हाथों द्वारा उसीपर शस्त्र प्रहार करने निर्मित हुई, परस्पर खान पान, बेटी लगे तो उसका दुःख केवल पैर हीको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68