Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ श्रङ्क १-२] जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता । जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक इसी प्रकार उक्त प्रथमानुयोगके ग्रन्थों में उन सत्पुरुषोंकी कथाएँ देकर प्रभुता। उन्हें जैनधर्मानुयायी बतलाया गया है जो हिन्दधर्मके पुराण ग्रन्थोंके अनुसार (ले०-सरस्वतीसहोदर, अमरावती।) ईश्वरके अवतार माने जाते हैं और जैनधर्मके पौराणिक साहित्य (प्रथमा- जिनकी वर्तमान हिन्दूधर्मानुयायी पूजा, नुयोग) का सूक्ष्मतया निरीक्षण और भक्ति तथा उपासना करते हैं। उदाहरणजैनधर्मके स्याद्वादकी दुर्भध सार्वभौमि के लिये श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्णजी कता पर विचार करनेसे प्रतीत होता है आदिको लीजिये। जैनशास्त्रोंमें, अनेक कि यह प्राचीन समयमें आजकलकी तरह कथाओं द्वारा, इन महानुभावोंको और इने गिने वैश्य समुदायके लिये रजिस्टर्ड इनके मित्र तथा प्रतिस्पर्धी हनुमान, नहीं था और न किसी वर्ण विशेषमें पाण्डव, रावण, कंस और जरासंधामर्यादाकी जंजीरोंसे ही जकड़ा हुआ था; दिकको उनके कतिपय परिवारों सहित बल्कि प्राचीन समयके प्रायः सर्व देशोंकी जैनधर्मानुयायी प्रकट किया गया है। जनतामें जैनधर्मके सार्वभौमिक सिद्धान्त इस विषयमें कुछ ऐतिहासिक विद्वान् व्यापक रूपमें फैल चुके थे। मूर्ख व्यक्तिसे . तथा अन्य विचारक जन भले ही जैनकथालेकर बड़े बड़े दिग्गज विद्वानोंतकके कारों पर कुछ दोषारोपण करें-उनकी हृदयमें और रंकसे लेकर चक्रवर्ती रचनाओं में कतिपय ऐसे दोष दिखलाएँ सम्राट्तकके मानसमें जैनधर्मने अपना जिनसे अजैन कथाकार भी मुक्त नहीं हैं, स्थान जमा लिया था। इतना ही नहीं, किन्तु अथवा यह कहें कि उनका लिखना अक्षर चक्री, अर्द्ध चक्री,महामंडलेश्वर,मंडलेश्व- अक्षर रूपसे सत्य नहीं है, परन्तु इसमें रादिक, प्रजापालक और उनके राज्यके संदेह नहीं, कि जैनधर्मकी (मोक्षमार्गप्रायः सम्पूर्ण प्रजाजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, की) अनेकान्तात्मक प्रभुताकी दृष्टिसे वैश्य, शूद्र और म्लेच्छ आदि सभी प्रकार- विचार करने पर जैन कथाकारोंका उक्त के उच्च, नीच मनुष्य) द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यक्तियोंको जैनधर्मानुयायी लिखना भावके अनुसार अपनी अपनी परिस्थितिके निर्हेतुक नहीं है। वे अनेकान्तात्मक वस्तुअनुरूप जैनधर्मको धारण कर (मोक्षमार्ग स्वभावी जैनधर्मको विश्वव्यापी और स्वीकार कर) अपना कल्याण किया सार्वभौमिक समझते थे और उनका यह करते थे। समझना बहुत कुछ ठीक जान पड़ता है। पौराणिक साहित्यमें ऐसी अनेक हमारे ख़यालमें श्रीरामचन्द्र तथा कथाएँ वर्णित हैं जिनसे जाना जाता है कि श्रीकृष्णादिक महान् व्यक्तियोंको जैनसप्त व्यसनोका सेवन करनेवाले अथवा धर्मानुयायी माननेमें शंका करना जैनउनमेंसे किसी एक व्यसनमें आसक्त धर्मको संकुचित और अनुदार बनाना है बहुतसे जुआरी (द्यूतक्रीडक), मांसभक्षक, जो कि उसकी प्रकृतिके विरुद्ध है। उन मद्यपायी, वेश्याभक्त, शिकारी, चोर और महान् व्यक्तियोंके सम्यग्दृष्टि होने में संदेह परस्त्रीलंपट अपने अपने राग परिणामों- करना मानो उन्हें अज्ञानी समझना है। को मन्द कर सम्यग्दृष्टि हो गये और सारा भारतवर्ष चिरकालसे जिनके नामअन्तमें उन्हें स्वर्गादिककी प्राप्ति हुई। काप्रातःस्मरण अभीतक करता आ रहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68