Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 32
________________ जैनहितैषी। [भाग १५ कनड़ी भाषाकी बहुत सेवाकी है और उक्त विस्मृतिके पटलमें लुप्त हो गया, उसके भाषामें अनेक संस्कृत ग्रन्थोंका अनुवाद सिद्धान्तोंपर गहरी चोट लगी; परन्तु किया है।" दक्षिणमें जैनधर्म और वैदिक-धर्मके मध्य . अहिंसाके उच्च श्रादर्शका वैदिक- जो कराल-संग्राम और रक्तपात हुआ, वह संस्कारोंपर प्रभाव पड़ा है । जैन-उप- मदुरामें मीनाक्षी-मन्दिरके स्वर्णकुमुद-सरो देशोंके कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलिप्रदान वरके मण्डपकी दीवारों पर अंकित चित्रों बिल्कुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें के देखनेसे अब भी स्मरण हो पाता है। जीवित पशुओंके स्थानमें श्राटेकी बनी इन चित्रों में जैनियोंके विकराल-शत्रु मर्तियाँ काम में लाई जाने लगी। तिरुशान संभाण्डके द्वारा जैनियोंके दक्षिण-भारतमें मूर्तिपूजा और देव. प्रति अत्याचारों और रोमाञ्चकारी यातमन्दिर निर्माणकी 'प्रचुरताका भी कारण नाओका चित्रण है। इस करुणाकाण्डका जैनधर्मका प्रभाव है। शैव-मन्दिरोंमें यहीं अन्त नहीं होता है। मड्यूरा मन्दिरमहात्माओंको पूजाका विधान जैनियों के बारह वार्षिक त्योहारों से पाँचमें यह हीका अनुकरण हैं। द्राविडोकी नैतिक हृदय-विदारक दृश्य प्रति वर्ष दिखलाया एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य कारण जाता है । यह सोचकर शोक होता है कि पाठशालाका स्थापन था, जिनका एकान्त और जनशून्य स्थानों में कतिपय उद्देश जैन विद्यालयों और प्रचारक- जैन-महात्माओं और जैनधर्मको वेदीपर मण्डलोंका रोकना था (?)। बलिदान हुए महापुरुषोंकी मूर्तियों और मदरास प्रान्तमें जैन-समाजकी वर्त- जनश्रुतियोंके अतिरिक्त, दक्षिण-भारतमें मान दशापरभी एक दो शब्द कहना उचित अब जैनमतावलम्बियोंके उच्च-उद्देशों, होगा। गत मनुष्य-गणनाके अनुसार सर्वाङ्गव्यापी उत्साह और राजनैतिकसब मिलाकर २७००० जैनी इस प्रान्तमें प्रभावके प्रमाणस्वरूप कोई अन्य चिह्न थे, जिनमेंसे दक्षिण- कनारा, उत्तर और विद्यमान नहीं है ।* दक्षिण-अरकाटके जिलों में २३००० हैं। इनमेंसे अधिकतर इधर उधर फैले हुए हैं और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला। गरीब किसान और अशिक्षित हैं। उन्हें इस समय ग्रन्थमालाका काम कुछ विशेष प्रयत्नसे अपने पूर्वजोंके अनुपम इतिहासका तनिक हो रहा है । मूलाचार प्राचार्य वसुनन्दिकी संस्कृत टीकाभी बोध नहीं है। उनके उत्तर-भारतवाले सहित, षट्याहुड़, श्रीश्रुतसागर सूरिकृत संस्कृत टीकासहित, भाई जो आदिम जैनधर्मके अवशिष्ट-चिह्न भावसंग्रह संस्कृत और प्राकृत, नीतिवाक्यामृत संस्कृत टीकासहित । इनके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्रोदय और हैं, उनसे अपेक्षाकृत अच्छा जीवन व्यतीत न्यायविनिश्चयालंकार इन दो महान् ग्रन्थोंकी भी प्रेसकरते हैं। उनमेसे अधिकांश धनवान्, कापियाँ हो रही हैं। अब इस कार्य में धर्मात्माओंको विशेष व्यापारी और महाजन हैं । दक्षिण-भारत- सहायता करनी चाहिए। में जैनियोंकी विनष्ट-प्रतिमाएँ, परित्यक्तगुफाएँ और भग्न-मन्दिर इस बातके स्मारक हैं कि प्राचीन-कालमें जैन-समाज * नोट-अनुवादकने अँगरेज़ी जैनगजटके जिस लेख परसे यह अनुवाद किया है उसमें ऐतिहासिक व्यक्तियों का वहाँ कितना विशाल-विस्तार था और तथा ग्रन्थों आदिके नामोंको ऐसे बुरे ढंगसे छापा है कि किस प्रकार ब्राह्मणोंकी धार्मिक-स्पर्धाने उनमें भ्रम होना सम्भव है। हम साधन और समयाभावसे उनको मृतप्राय कर दिया। जैन-समाज उनकी जाँच नहीं कर सके।-सम्पादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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