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निर्भर है। जब उनकी सहायताका द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष उस मतसे अपना सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और पल्लव और पाण्ड्य साम्राज्यों में जैनधर्मकी भी ठीक यही दशा हुई ।
जैनहितैषी ।
इस काल (५वीं शताब्दि के उपरान्त) के जैनियोंका वृत्तान्त सेकिल्लार नामक लेखकके ग्रन्थ पेरियपुराणम्में मिलता है। उक्त पुस्तक में शैवनयनार और नवी अन्दर नम्बीके जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रोंकी रचना की है । तिरुज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पढ़ते हुए एक उपयोगी ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मा वलम्बी कुन्पाण्ड्यको शैवमतानुयायी किया । यह बात ध्यान रखने योग्य है । क्योंकि इस घटनाके अनन्तर पाण्ड्यनृपति जैनधर्म के अनुयायी न रहे। इसके अतिरिक्त जैनी लोगों के प्रति ऐसी निष्ठु रता और निर्दयताका व्यवहार किया गया, जैसा दक्षिण भारत के इतिहास में और कभी नहीं हुआ । संभाण्डके घृणा - अनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक दसवें पद्यमें जैनधर्म की भर्त्सना थी, यह स्पष्ट है कि वैमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी ।
श्रतएव कुन्पाण्ड्य का समय ऐतिहासिक दृष्टिसे ध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समय से दक्षिण भारतमें जैनधर्म की अवनति प्रारंभ होती है । मि० टेलर के अनुसार कुन्पाण्ड्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, परन्तु डा० काल्डवेल १२६२ ई० बताते हैं । परन्तु शिलालेखों से इस प्रश्नका निश्चय हो गया है । 'स्वर्गीय श्रीयुत वैकट्याने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६४२ ई० में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथम 'वातापी' का विनाश किया। इसके आधार पर तिरुज्ञानसंभाण्डका समय ७वीं शताब्दिके मध्य में
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भाग १५ ] निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि संभाण्ड एक दूसरे शैवाचार्य 'तिरुनत्रु करसार' अथवा लोकप्रसिद्ध श्रय्यारका समकालीन था, परन्तु संभाण्ड 'श्रय्यार' से कुछ छोटा था । और अय्यारने नरसिंह वर्मा पुत्रको जैनीसे शैव बनाया । स्वयं अय्यार पहले जैनधर्मकी शरण में श्राया था और उसने अपने जीवनका पूर्व भाग प्रसिद्ध जैन विद्याके केन्द्र तिरुपि प्युलियारके विहारोंमें व्यतीत किया । इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण श्राचार्य संभाण्ड और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय श्रनन्तर अपने स्वामी तिलकवथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैव-मतकी दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्यों में जैनधर्मकी उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा । इस धार्मिक संग्राम में शैवोंको वैष्णव अलवारोंसे विशेष कर 'तिरुमलिसैप्पिरन् ' और 'तिरुमंगई' अलवार से बहुत सहायता मिली, जिनके भजनों और गीतों में जैन-मत पर घोर कटाक्ष हैं । इस प्रकार तामिल - देशों में नम्मलवार के समयमें (१० वीं शताब्दि ए० डी०) जैनधर्मका अस्तित्व
सङ्कटमय रहा 1
३- अर्वाचीन काल |
नम्मलवार के अनन्तर हिन्दूधर्म के उन्नायक प्रसिद्ध श्राचार्योंका समय है । सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए, जिनका उत्तरकी ओर ध्यान गया । इससे यह प्रकट है कि दक्षिण भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो चुकी थी। जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध जैम-स्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर) टिण्डिवानम् (दक्षिण अरकाट) 'जा बसे । कुछने गंग राजाओंकी शरण ली जिन्होंने उनका पालन किया । यद्यपि श्रव जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और यद्यपि उन्हें
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