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अङ्क १-२] तामिल प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी । अपेक्षा सीधे सादे ढंगके थे और उनके दक्षिणमें अपना धर्म-प्रचार करने आये थे। कतिपय सिद्धान्त सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाओंने थे। इसी लिए द्राविड़ोंने उन्हें पसन्द किया उन्हें सब प्रकारसे अपनाया। लगभग और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया; इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' नामक यहाँ तक कि अपने धार्मिक-जीवनमें उन्हें ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समयअत्यन्त आदर और विश्वासका स्थान में ब्राह्मणों और जैनियोंमें परस्पर प्रतिप्रदान किया।
स्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। __ कुरलके अनन्तरके युगमें प्रधानतः इस प्रकार इस 'संघ-काल' में रचित जैनियोंकी संरक्षतामें तामिल-साहित्य ग्रन्थोंके आधारपर निम्नलिखित विवरण अपनी चरम सीमा तक पहुँचा । तामिल- तामिल-स्थित जैनियोंका मिलता है। साहित्यकी उन्नतिका वह सर्वश्रेष्ठ काल (१) थोलकपियरके समयमै, जो ईसाथा। वह जैनियों की भी विद्या और प्रतिभा- के ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान् था, कदाचित् का समय था, यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्य- जैनी सुदूर दक्षिण-देशोंमें न पहुँच पाये हों। का समय अभी नहीं पाया था। इसी (२) जैनियोंने सुदूर-दक्षिणमें ईसाके समय (द्वितीय शताब्दी) चिरस्मरणीय अनन्तर प्रथम शताब्दिमें प्रवेश किया। 'शिलप्यदिकारम्' नामक काव्यकी रचना (३) ईसाकी दूसरी और तीसरी हुई। इसका कर्ता चेर-राज सेंगुत्तवनका शताब्दिमें, जिसे तामिल-साहित्यका भाई इलंगोव दिगाल था। इस ग्रन्थमें सर्वोत्तम-काल कहते हैं, जैनियोंने भी जैन-सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाज- अनुपम उन्नति की। के विद्यालयों और प्राचारों आदिका (४) ईसाकी पाँचवीं और छठी शताविस्तृत वर्णन है। इससे यह निस्सन्देह ब्दियों में जैनधर्म इतना उन्नत और प्रभावसिद्ध है कि उस समय तक अनेक द्राविड़ों- युक्त हो चुका था कि वह पाराड्य-राज्यने जैनधर्मको स्वीकार कर लिया था। का राजधर्म हो गया। .
ईसाकी तीसरी और चौथी शता. शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार ब्दियों में तामिल-देशमें जैनधर्मकी दशा जाननेके लिये हमारे पास काफ़ी सामग्री
काल। नहीं है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण ___ इस कालमें वैदिक धर्मकी विशिष्ट प्रस्तुत हैं कि ५ वीं शताब्दिके प्रारम्भमें उन्नति होनेके कारण बौद्ध और जैनधर्मोंजैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ा का श्रासन डगमगा गया। सम्भव है कि ही उत्साहपूर्ण कार्य किया। ‘दिगम्बर- जैनधर्मके सिद्धान्तोंका द्राविड़ी विचारोंदर्शन' (दर्शनसार ?) नामक एक जैन- से मिश्रण होनेसे एक ऐसा विचित्र ग्रन्थमें इस सम्बन्धका एक उपयोगी दुरंगा मत बन गया हो जिस पर चतुर प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थमें लिखा है ब्राह्मण आचार्योंने अपनी वाण-वर्षा की कि सम्वत् ५२६ विक्रमी (४७० ईसवी) • होगी। कट्टर जैन राजाओंके आदेशामें पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा नुसार, लम्भव है, राजकर्मचारियोंने दक्षिण मदुरामें एक द्राविड़-संघकी धार्मिक अत्याचार भी किये हों। रचना हुई है और यह भी लिखा है कि किसी मतका प्रचार और उसकी उक्त संघ दिगम्बर जैनियोका था जो उन्नति विशेषतः शासकोंकी सहायतापर
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