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श्रङ्क १-२ ]
विश्राम करनेकी आज्ञा दी । वह देश जन, धन, सुवर्ण, अन्न, गाय, भैंस, बकरी आदि से सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौंप दिया और उन्हें चोल और पाण्ड्य देशोंमें उसके अधीन भेजा । राजावलिकथेमें लिखा है कि विशाख मुनि तामिल - देशों में गये, वहाँ पर जैनचैत्यालयों में उपासना की और वहाँ के निवासी जैनियोंको उपदेश दिया। इसका तात्पर्य यह है कि भद्रबाहुके मरण (अर्थात् २६७ बी० सी०) के पूर्व भी जैनी सुदूरदक्षिण में विद्यमान थे । यद्यपि इस बातका उल्लेख राजावलिकथेके अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता और न कोई अन्य प्रमाण ही इसके निर्णय करनेके लिये उपलब्ध होता है, परन्तु जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में विशेषतः उनके जन्मकालमें, प्रचारका भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनुचित न होगा कि जैनधर्मके श्रादिम प्रचारक पार्श्वनाथके संघ दक्षिण की ओर अवश्य गये होंगे । इसके अतिरिक्त जैनियोंके हृदयों में ऐसे एकान्त स्थानोंमें वास करनेका भाव सर्वदासे चला श्राया है, जहाँ वे संसारकी झंझटों से दूर, प्रकृतिकी गोदमें, परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । श्रतएव ऐसे स्थानोंकी खोज में जैनी लोग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये होंगे। मदरास प्रान्त में जो अभी जैन मन्दिरों, गुफाओं और बस्तियोंके भग्नावशेष और धुस्स पाये जाते हैं, वही उनके स्थान रहे होंगे। यह कहा जाता है कि किसी देशका साहित्य उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारौका चित्र है। इसी सिद्धान्तके अनुसार तामिल - साहित्यकी ग्रन्थालीसे हमें इस बात का पता लगेगा कि
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तामिल प्रदेश में जैन धर्मावलम्बी ।
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जैनियोंने दक्षिण भारतकी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं पर कितना प्रभाव डाला है ।
समस्त तामिल साहित्यको हम तीन युगों में विभक्त कर सकते हैं
१ संघ-काल ।
२. शैव नयनार और वैष्णव अलवारकाल ।
३. अर्वाचीन काल ।
इन तीनों युगों में रचित ग्रन्थोंसे तामिल राज्यमें जैनियोंके जीवन और कार्य्यका अच्छा पता लगता है।
संघ-काल ।
तामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुए । प्रथम संघ, मध्यम संघ और और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानसे यह ज्ञात हो गया है कि किन किन समय के अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके ४६ कवियोंमेंसे नक्किरारने संघोंका वर्णन किया है । उसके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण थोलकपियर प्रथम और द्वितीय संघोंका सदस्य था । श्रान्तरिक और भाषासम्बन्धी प्रमाणों के आधारपर अनुमान किया जाता है कि उक्त ब्राह्मण वैयाकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान् होगा । विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शताब्दी निश्चय किया है । अन्तिम संघके समयको श्राजकल इतिहासज्ञ लोग ५वीं६ ठी शताब्दी निश्चय करते हैं । इस प्रकार सब मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५ वीं शताब्दी के पूर्व से लेकर: ईसाके अनन्तर पाँचवीं शताब्दी तकके कालको हम संघ-काल कह सकते हैं । अब हमें इस बातपर विचार करना है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और कार्यों पर प्रकाश डालते हैं।
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