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ग्रन्थके २४ वे पथ और श्रवणबेलगोलके शिक्षासेज नं० ५४ (मझिषेणप्रशस्ति) के अन्तिम भाग पर ले यह ग्रन्थ ज्यादातर मधारी मलिषेणका बनाया हुआ प्रतीत होता है ।
जैनहितैषी ।
मणिका कोई प्राकृत ग्रन्थ अभी तक हमारे भी देखने में नहीं आया । परन्तु पं० दौर्बमिजिनदासशास्त्रीके भंडारकी सूची पर से इतना पता ज़रूर चला है कि महिषेणका बनाया हुआ 'त्रिभंगी' नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है जिसकी पद्य संबा ५३ है । सम्भव है कि यह प्रन्थ इन्हीं ''भयभाषा कविचक्रवर्ती' मल्लिषेण का बनाया हुआ हो। हमने इसकी प्रशस्ति आदिके लिये भी शास्त्रीजीको लिखा है । उसके आने पर विशेष हालसे पाठकोंको फिर सूचना दी जायगी ।
तामिल - प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी |
[ मूल मे० श्रीयुत एम० एस० रामस्वामी भायंगर, एम० इतिहासाध्यापक, महाराजा कालेज, विजयानगर । ] ( अनुवादक - कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन, आरा । )
५०,
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुसे मिलकर बनी है । हिन्दुओंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी सर्व व्यापी मनुष्यता, बुद्धका ज्ञान-प्रकाश, "अरबके पैगम्बर ( मुहम्मद साहब ) का विकट धार्मिक जोश और संगठन शक्ति, द्रविड़ की व्यापारिक प्रतिभा और समया दुसार परिवर्तनशीलता, इन सबका भारतीय जीवन पर अनुपम प्रभाव पड़ा है और आजतक भी भारतीयोंके विचारों, कार्यों और आकांक्षाओं पर उनका अदृश्य
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[ भाग १५
प्रभाव मौजूद है । नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है; राजेमहाराजे विजय प्राप्त करते हैं और पददलित होते हैं; राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा संस्थाओंकी उन्नतिके दिन आते हैं और बीत जाते हैं, धार्मिक सम्प्रदायों और विधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियोंके हृदयों में विस्फूर्ति रहती है । परन्तु इस पुनर्वार-परिवर्तनकी क्रियाके अन्तर्गत कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान हैं, जो हमारे और हमारी सन्तानों की सर्वदा के लिये पैतृक सम्पत्ति हैं । प्रस्तुत लेख में एक ऐसी जाति के इतिहासको एकत्र करनेका प्रयत्न किया जायगा, जो अपने समय में उच्चपद पर विराजमान थी, और इस बात पर भी विचार किया जायगा कि उस जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नतिमें कितना भाग लिया है।
यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता कि तामिल- प्रदेशों में कब जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भ हुआ । सुदूरके दक्षिण भारत
जैनधर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट सामग्री का अभाव है । परन्तु दिगम्बरोंके दक्षिण जानेसे इस इतिहासका प्रारम्भ होता है | श्रवणबेलगोलके शिलालेख अब प्रमाणकोटि में परिगणित होते हैं और १६वीं शताब्दीमें देवचन्द्रविरचित 'राजावलिकथे' में वर्णित जैन- इतिहासको अब इतिहासज्ञ विद्वान् असत्य नहीं ठहराते । उपर्युक्त दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ) ने यह देखकर कि उज्जैन में १२ वर्षका एक भयङ्कर दुर्भिक्ष होनेवाला है, १२००० शिष्योंके साथ दक्षिण की ओर प्रयाण किया । मार्गमें श्रुतकेवलीको ऐसा जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिये उन्होंने कटवप्र नामक देशके पहाड़ पर
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