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ફર
उनको अज्ञानी या मिथ्यावादी समझना बड़ी भूल है । उक्त महान् व्यक्तियोंकी नस नस अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावी धर्म भरा हुआ था । प्राचीन समय में वीर व्यक्ति ही जैनधर्मका सम्पूर्णतया पालन करते थे । श्रीकृष्णके नामसे जो गीता प्रसिद्ध है उसमें जैनधर्मके सिद्धान्त का प्रतिपादक निम्नलिखित पद्य ध्यानसे पढ़े जाने योग्य है
जैनहितैषी ।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न. कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्त्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
इसमें श्रीकृष्णजी अर्जुनको बतलाते हैं कि, परमेश्वर जगत् के कर्तृत्व और कमको उत्पन्न नहीं करता और न कर्मफलकी योजना करता है; यह सब कुछ स्वभावसे ( अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावसे) हो रहा है। परमेश्वर न किसीका पाप अपने ऊपर लेता है और न किसीका पुण्य । श्रज्ञानके द्वारा ज्ञान पर परदा पड़ा हुआ है और उसके कारण संसारी जीव मोहित हो रहे हैं-तरह तरहकी कल्पनाएँ कर रहे हैं ।
इन जैन सिद्धान्तानुकूल भावों पर विचार करनेसे, जो कि जैन ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं, श्रीकृष्णजीको जैनकथाग्रन्थोंके कथनानुसार, जैन धर्मानुयायी माननेमें कुछ सङ्कोच नहीं होता ।
'वास्तव में श्राजकल जैनधर्मके अनेक तत्त्व संसारके सभी मत और सम्प्रदायों
इसी भाँति सूक्ष्म रीतिसे छिपे हुए हैं । उनको अनेकान्तरूपी दैदीप्यमान प्रकाशके सहारे खोजकर प्रकट करना जैनधर्मकी उन्नति और उसके प्रवारका एक मार्ग है।
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[ भाग १५
भट्टाकलंकदेवने अपने साहित्य में जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुताको बड़े ही स्पष्ट रूप से झलकाया है । श्राप नामादि विशेषको प्रायः कुछ भी प्रधानता नहीं देते थे । आपके प्रतिपाद्य साहित्य में सर्वत्र परीक्षाप्रधानताकी ध्वनि गूँजती है । श्रापके जीवनचरित्रसे विदित होता है कि आपका अध्ययन बौद्धोंके विद्यापीठमें भी हुआ था । श्राप अपने समयमें प्रचलित अनेक दर्शनोंके पारङ्गत विद्वान् थे । आपको जैनदर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनसाहित्यके पढ़ने में तथा सत्यांशको खोजने में मिथ्यात्वका भय नहीं रहता था । यही सबब है कि आप इतने बड़े दिग्गज विद्वान् हो सके । आपकी परीक्षाप्रधानता और युक्तिपूर्ण अनेकान्त प्रभुता निम्नलिखित एक ही श्लोकले प्रकट होती है
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यो विश्व वेद वेद्यं जननजल निधेर्माङ्गिनः पारदृश्वा | पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्कं यदीयम् ॥ तं वन्दे साधुवन्द्यं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तम् । बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदल
निलयं केशवं वा शिवं वा ॥
आपको ऐसे ही वचन मान्य थे जो परस्पर अविरुद्ध, अनुपम और निर्दोष हों, चाहे वे किसी मतके हो। इसी प्रकार आपको वर्द्धमान नामसे ही विशेष अनुराग न था और न बुद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, महेश श्रदिक नामोंसे कोई घृणा थी; किन्तु जो सम्पूर्ण विश्व को देखने जाननेवाला, दोषों से रहित, सकल गुणका श्रागार और साधुओं करके वन्दनीय हो
जैनधर्मके धुरन्धर आचार्य श्रीमद् उसीको श्राप परमदेव मानते थे । फिर
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