Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ श्रङ्क १-२ मल्लिषेणका विशेष परिचय। कुमारजीके निकटसम्बन्धी हैं, उनकी स्टेटके एक्जीक्यूटर रह चुके हैं, भवनके मल्लिषेणका विशेष परिचय । मा ट्रस्टी हैं, भवनसे प्रेम रखते हैं, जिस विद्वद्रत्नमाला प्रथम भागमें श्रीयत मन्दिरमें भवन स्थापित है उसके प्रबन्ध- पंडित नाथूरामजी प्रेमीने मल्लिषेणाचार्यकर्ता हैं, भवनके पास ही रहते हैं और का कुछ परिचय दिया है जो कि 'उभयप्रतिदिन भवन में आया जाया करते हैं। भाषाकविचक्रवर्ती' कहलाते थे और हालमें आप अपनी गवर्नमेंट पोस्टसे जिन्होंने मुलगुन्द नगरके श्रीजैनधर्मालयरिटायर्ड भी हो चुके हैं और बहुतसी में ठहर कर शक संवत् १६६ में महापुराणझंझटोंसे अलग हैं। इसलिये हमारी को बनाकर समाप्त किया था। मापसे प्रार्थना है कि भाप इस भवनको इस महापुराणकी प्रशस्तिके आधारएक आदर्श भवन बनानेका जीजानसे पर प्रेमीजी ने लिखा था कि, “मल्लिषणने यत्न करें और बन सके तो अपना शेष ('श्रीजिनसेनसूरितनुजेन', इस वाक्यके जीवन इसीके द्वारा.जिनवाणी माताकी द्वारा) अपनेको श्रीजिनसेनसूरिका पुत्र पवित्र सेवामें अर्पण कर देवें । श्रापकी बतलाया। इससे जान पड़ता है कि प्रेरणा और सलाह-मशवरेसे भी सब कुछ गृहस्थजीवनमें जो इनके पिता होंगे उन्होंने हो सकता है। भवनमें रुपयेकी कमी पीछेसे दीक्षा ले ली होगी और मुनिजीवननहीं है और यदि कमी हो भी तो वह में उनका नाम 'जिनसेन' रक्खा गया काम दिखलाकर सहजहीमें पूरी की जा होगा।" परन्तु ये जिनसेन कौन थे, किस सकती है। गुरुपरम्परामें उत्पन्न हुए थे और मल्लिहम चाहते थे कि भवनकी एक षेणकी गुरुपरम्परा क्या थी, इन सब मीटिंग हमारे सामने होकर बहुतसी बातों बातोंका श्राप कोई निर्णय नहीं कर सके पर विचार हो जाय । कुमार देवेन्द्र- थे। साथ ही, यह भी मालूम नहीं कर प्रसादजीने इसके लिये कोशिश भी की। सके थे कि पद्मावतीकल्प (भैरवपद्मावतीपरन्तु खेद है कि वह नहीं हो सकी! कल्प) और ज्वालिनीकल्प नामके जो दो प्राशा है अब बादमें मीटिंग होकर सब ग्रन्थ मल्लिषणके नामसे प्रसिद्ध हैं वे कौन- - व्यवस्था ठीक की जायगी और भवनका से मल्लिषणाचार्यके बनाये हुए हैं। इसके . जो कार्यक्रम निश्चित होगा उसकी सर्व- अतिरिक्त प्राचार्य महाराजकी कृतियों में साधारणको सूचना दी जायगी। भवन- नागकुमार काव्यका-नागकुमार पंचमी की कार्यकारिणी सभाका ध्यान हम इस __ कथाका-परिचय देते हुए आपने यह भी निरीक्षणकी ओर ख़ास तौरसे आकर्षित लिखा था कि “इस ग्रन्थमें कर्ताने अपनी करते हैं। प्रशस्ति नहीं दी है।” अस्तु; हालमें, जैन३१-१०-२० । सिद्धान्तभवन प्राराका निरीक्षण करते हुए उसके ताड़पत्रोंके ग्रन्थसंग्रह परसे, हमें इस ग्रन्थकी दो प्रतियाँ ऐसी उपलब्ध हुई है जिनमें ग्रन्थकर्ताकी प्रशस्ति लगी हुई है और इसलिये यह बात बाक़ी नहीं रहती कि ग्रन्थकर्ताने इस प्रन्थमें अपनी प्रशस्ति नहीं दी। प्रशस्ति ज़रूर दी है, . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68