Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 23
________________ २१० अङ्क १-२ मलिषेणका विशेष परिचय। समूहका नाश करनेवाली और संसार- कर्मेन्धनदहनपटु.. विच्छेदिनी यह पाँच सौ श्लोक परिमाण, स्तच्छिष्यः कनकसेनगणी ॥५६॥ श्रीपंचमी कथा रची है । जो सहृदय चारित्रभूषितांगो, मनुष्य भक्तिके साथ इसे लिखते हैं, आदर नि:संगो मथितदुर्नयानंगः। के साथ सुन्दर वचनों द्वारा इसका तच्छिण्यो जिनसे व्याख्यान करते हैं और प्रसन्नचित्त होकर सुनते हैं वे सदा मुक्तिलक्ष्मीको बभूव भव्याजधर्मांशुः ॥५॥ प्राप्त होते हैं। तदीय शिष्योऽजनि मस्तिषण:प्रशस्तिमें मल्लिषणसे पहले 'तच्छिष्यः' सरस्वतीदचवरप्रसादः। पदका प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ तेनोदितो भैरवदेवताया:होता है 'उनका शिष्य। 'तत्। (उनका) कल्प: समासेन चतुःश्यतेन ॥५८॥ शब्दका सम्बन्ध नरेंद्रसेन और जिनसेन यावद्वारिधिभूधरदोनोंके साथ लगाया जा सकता है। तारागणगगनचंद्रदिनपतयः । परन्तु वास्तवमें उसका वाच्य नरेंद्रसेन नहीं किन्तु जिनसेन है, जैसा कि मागे तिष्ठतु भुवि तावदयं चलकर भैरवपद्मावतीकल्प और ज्वालिनी- भैरवपद्मावतीकल्पः ॥५९॥ कल्प नामके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे मालूम ज्वालिनीकल्पकी प्रशस्ति निन्न. होगा। इन दोनों प्रशस्तियों में जिनसेनके लिखित है:-.. बाद 'तदीयशिष्योऽजनिमल्लिषणः, तस्या प्रशिष्योऽजनि मल्लिषणः' इन वाक्यों ___ "श्रीमतोनितसेनस्य सूरिः ( रेः) के द्वारा साफ तौरसे मल्लिषेणको जिन. कार्तिधुरिणा (गः)। सेनका शिष्य सूचित किया है और जिन- शिष्यः कनकसेनोभूसेनके छोटे भाई नरेंद्रसेनका नाम भी दणिकमुनिजनस्तुतः ॥१॥ नहीं दिया। मल्लिषणजी जिनसेनाचार्यके ___ तदीय शिष्यो जिनसेनसूरिः अपशिष्य थे और इसलिये महापुराणकी . तस्याप्रशिष्योऽजनि मालिकषणः प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको जो जिनसेनका वाग्देवतालक्षितचारुवक्त्रपुत्र लिखा है उसका अभिप्राय शिष्य ही स्तेनाराचि मिखिजादेविकल्पः ॥२॥ जान पड़ता है-प्राचार्योका शिष्यवर्ग भी उनकी संतति कहलाता है। कुमतिमतविभेदि (दी) जैनतत्वार्थवेदि (दो), भैरवपद्मावतीकल्पकी प्रशस्ति इस हतदुरितसमूहः क्षीणसंसारमोहः । प्रकार है: भवजलधितरंडो वाग्ववाक्षरण्डे (?) "सकन्नृपमुकटघटित विबुधकुमुदचंद्रो मल्लिषेणो गोंद्रः ॥॥" चरणयुग: श्रीमदजितसेनगणी । इन दोनों प्रशस्तियोंको नागकुमार जयतु दुरितापहारी, पंचमी कथाकी प्रशस्तिके साथ मिलाकर . भव्योषभवार्णवोगारी ॥५५॥ . पढ़नेसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं जिनकमयागमवेदि (दी), रहता कि ये तीनों प्रशस्तियाँ एक ही गुस्तरसंसारकाननोच्छदी। व्यक्तिसे सम्बन्ध रखती हैं-तीयों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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