________________
ઇ
पाँच वर्ष हुए एक स्थानसे दो ग्रन्थ भवनको भेजे गये थे और यह लिखा गया था कि हमें इनके नामादिकका कुछ पता नहीं चलता, आप किसी विद्वान्को दिखलाकर इनका पता चलाना और भवनमें विराजमान करना । ये दोनों ग्रन्थ छपी हुई सूचीमें तो क्या भवनके किसी रजिस्टर में भी दर्ज नहीं हुए और न भवनकी तरफसे इस बातका कोई प्रयत्न हुआ कि किसी विद्वान् को दिखलाकर उनका परिचय प्राप्त किया जाय। हाँ, पत्रके साथ दोनों प्रन्थ भवनमें रक्खे हुए ज़रूर हैं- इनमेंसे एक ग्रन्थ अपभ्रंश प्राकृत भाषाका 'सन्मतिचरित्र' है जिसे रैधू कविने बनाया है और जो वि० संवत् १६४८ का लिखा हुआ है; दूसरा एक छोटासा खण्डित संस्कृत ग्रन्थ है जो अपने साहित्य परसे कोई साधारण ग्रन्थ जान पड़ता है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि पिछले कुछ सालों में भवनमें कैसा दिलचस्पी के साथ काम हुआ है !
जैनहितैषी ।
देवनागरी अक्षरोंके हस्तलिखित संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंकी जो सूची मुद्रित सूची में पृष्ठ ४१ से ५४ तक दर्ज है उसकी हमने स्वयं मूल ग्रन्थोंपरसे जाँच की है। जाँच से हमें सैकड़ों त्रुटियाँ, शु दियाँ और भूलें मालूम हुई हैं। उदाहरणके तौर पर दो चार नमूने उनके नीचे दिखलाये जाते हैं:
www.
१- पृष्ठ ४४ पर 'तत्त्वार्थरत्नदीप ' नामका प्रन्थ 'धर्मकीर्ति का बनाया हुआ लिखा है और उसकी पत्रसंख्या २७२ दी है । परन्तु वास्तवमें यह प्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्रकी 'तत्त्वार्थरत्नदीपिका' नामकी कनड़ी टीका है जो देवनारी अक्षरोंमें लिखी हुई है और इसकी प्रत्येक सन्धिर्मे कर्ताका नाम बहुत स्पष्ट रीति से 'बालचन्द्र मुनि' दिया
Jain Education International
[ भाग १५
है, पत्रसंख्या इसकी २६१ है और साथ ही ग्रन्थके अन्तमें श्लोकसंख्या भी ७०३६ दी है जिसे सूची में दर्ज नहीं किया। इस तरह इसके सम्बन्धकी प्रायः सभी बातें सूची में गलत दर्ज हुई हैं। बात यह है कि इस प्रन्धके अन्त में किसी दूसरे ग्रन्थका एक प्रकरण नकल किया हुआ है जिसमें धर्मकीर्तिकी बहुत प्रशंसा की गई है। सूची तय्यार करनेवाले महाशयने इतने परसे ही इस समूचे ग्रन्थको धर्मकीर्तिका बना दिया और प्रन्थके पत्रोंको उलटने का कष्ट नहीं उठाया । साथ ही ग्रन्थनाममें भी कुछ थोड़ी सी भूलको स्थान दे दिया ।
२- पृष्ठ ४६ पर ६५ नम्बरकी 'पंचपरमेष्ठिपूजा' का कर्ता 'रत्नसागर' ग़लत लिखा है, उसका कर्ता 'यशोनन्दी' है । सूची बनानेवालोंने लिपिकर्ताको प्रन्थकर्ता समझ लिया है !
३- पृष्ठ ४४ पर 'जिनमुखावलोकनकथा' का कर्ता 'संकलकीर्ति' के स्थान में 'रत्नकीर्ति' लिखा है और पत्रसंख्या भी ५ के स्थान में १४ ग़लत दर्ज की है । ग्रन्थके नाम में 'कथा' से पहले 'व्रत' शब्द और होना चाहिये था और साथ ही उसकी श्लोकसंख्या भी ८७ दर्ज करनी चाहिये थी ।
४- पृष्ठ ४८ पर 'ब्रह्मचर्याष्टक' नामका जो ग्रन्थ १११ पत्रसंख्यावाला दिया है वह वास्तव में सटीक 'पद्मनंदिपंचविंशतिका' है। अंतमें ब्रह्मचर्याष्टक नामका प्रकरण देखकर ही समूचे ग्रन्थको यह गलत नाम दिया गया है ।
५- पृष्ठ ५० पर 'शासनप्रभावना' कामकाएक ग्रन्थ विनयचंद्रका बनाया हुआ लिखा है जो बिलकुल गलत है । वास्तवमें यह ग्रन्थ पं० श्राशाधरके प्रतिष्ठासारोद्धार (जिनयज्ञकल्प) नामके ग्रन्थका
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org