Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अङ्क १-२ ] यह विराम लेना उचित समझते हैं। इस लेखका दूसरा भाग (उत्तरार्ध), जो 'मूर्तिपूजा' से सम्बन्ध रखता है, अगले कमें दिया जायगा और उसमें उपासनाके ढंग पर भी ख़ासा विवेचन किया जायगा । इसके सिवाय 'स्तुतिप्रार्थनादि रहस्य' नामका एक दूसरा विस्तृत स्वतन्त्र लेख लिखनेका भी हमारा विचार हो रहा है, जिसमें जैनियोंके भक्तिमार्ग पर और भी ज्यादह विशेषताके साथ प्रकाश डाला जायगा और स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं आदि के रहस्यको खोलकर रक्खा जायगा । इन सब लेखोंसे, हम समझते हैं, उपासनाका विषय बहुत कुछ विशद और स्पष्ट हो जायगा । सरसावा, ता०१-१२-२० पुरानी बातोंकी बोज । पुरानी बातोंकी खोज । १- तत्त्वार्थराजवार्तिकका अन्तिम वाक्य | सनातन जैन ग्रन्थमालामें श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवालने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' नामका जो ग्रन्थ प्रकाशित कराया है उसके अन्तमें ३२ श्लोक 'उक्तंच' रूपसे दिये हैं और उनके साथ ही ग्रंथ समाप्त कर दिया है । इन श्लोकोंके बाद ग्रंथकी समाप्तिसूचक कोई पद्य नहीं दिया; यह बात हमें बहुत खटकती थी और इसलिये हमें इस बातकी खोजमें थे कि प्रन्थकी श्रन्यान्य हस्तलिखित प्रतियों परसे यह मालूम किया जाय कि उनका भी ऐसा ही हाल है अथवा किसीमें कुछ विशेष है। खोज करते हुए जैन सिद्धान्तअवन, धाराकी एक प्रतिमें, जिसका Jain Education International नम्बर ५१ है, उक्त ३२ श्लोकों के बाद, एक प हमें इस प्रकार मिला है:इति तत्त्वार्थसूत्राणां भाष्य भाषितमुशमः । यत्र संनिहितस्तर्कन्यायागमविनिर्णयः ॥ इस पद्यके द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रोंके - अर्थात्, तत्त्वार्थ शास्त्र पर बने हुए वार्तिकोंके - भाष्य की समाप्तिको सूचित किया है और यह बतलाया है कि इस भाष्यमें तर्क, न्याय और श्रागमका विनिर्णय अथवा तर्क, न्याय और आगमके द्वारा विनिर्णय संनिहित है । इसमें संदेह नहीं कि यह पद्य तत्त्वार्थवार्तिक भाष्यका अन्तिम वाक्य मालूम होता है । परंतु अनेक प्रतियोंमें यह वाक्य नहीं पाया जाता, इसे लेखकोंकी करामात समझना चाहिये । २- न्यायदीपिका की प्रशस्ति । श्राराके जैनसिद्धान्तभवनमें 'न्यायदीपिका की जो प्रति नं० १५६ की है उसके अन्त में निम्नलिखित प्रशस्ति पाई जाती है: मद्गुरोर्वर्धमानेशो वर्धमानदयानिधेः । श्रीपाद स्नेह सम्बंधात्सिद्धयं न्यायदीपिका ॥१॥ और इसके बाद अन्तिम संधि इस प्रकार दी है: 'इति श्रीमद्वर्धमानभट्टारकाचार्य गुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदय भीमदभिनव धर्म भूषणाचार्य विरचितायां न्यायदीपिकाय । मागमप्रकाशः समाप्तः । यह सन्धि और उक्त प्रशस्ति दोनों चीजें, सन् १९११ में, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हुई 'न्यायदीपिका' में नहीं हैं और न इससे पहलेकी छपी हुई किसी प्रतिमें हैं । श्रनेक हस्तलिखित प्रतियों में भी ये नहीं देखी गई। हाँ दौर्वलि जिनदासशास्त्रीके भंडारमें जो इस ग्रन्थकी दो प्रतियाँ हैं उनका अन्तिम भाग एक 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68