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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
(३) कोल्हापुर नगर के शुक्रवारी नगर द्वार के निकटस्थ पार्श्वनाथ मन्दिर के पास से उपलब्ध हुए एक शिलालेख में भी कोल्हापुर नरेश गण्डरादित्य, उनके महासामन्त सेनापति निम्बदेव और इनके धर्मगुरु आचार्य माघनन्दि का उल्लेख है। इस शिलालेख में उटंकित है कि शिलाहार वंशीय महाराजा गण्डरादित्य के शासनकाल में उनके महासामन्त निम्बदेव ने कोल्हापुर में पहले 'रूपनारायण' नामक जैन मन्दिर का निर्माण करवाया । निम्बदेव एक निष्ठावान जैन धर्मावलम्बी एवं जैन धर्म के नियमों का पालन करने वाले अग्रणी श्रावक थे । जैन धर्म के प्रसार एवं उत्कर्ष के लिये निम्बदेव ने अपने धर्मनिष्ठ जीवन के प्रारम्भिक काल में सर्वप्रथम रूपनारायण मन्दिर और तदनन्तर भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर का निर्माण कवडे गोल्ला बाजार में करवाया । 'अय्यावले पांच सौ' नामक एक व्यापारिक महासंघ ने मण्डियों में क्रय-विक्रय पर एक धार्मिक शुल्क लगाकर उससे होने वाली स्थायी प्राय का इस मन्दिर को ई० सन् १९३५ के आस-पास के विक्रम संवत् में दान दिया। व्यापारियों के महासंघ ने मन्दिर की स्थायी व्यवस्था के लिये यह दान श्राचार्य माघनन्दि के शिष्य एवं रूपनारायण वसदि के मठाधीश आचार्य श्रुतकीर्तित्रैवेद्य को प्रदान किया । '
यह ऊपर बताया जा चुका है कि कोल्हापुर नरेश महाराज गण्डरादित्य की अनेक उपाधियों में से 'रूपनारायण' भी एक उपाधि थी और इस प्रकार निम्बदेव ने अपने स्वामी रूपनाराण उपाधिघर महाराज गण्डरादित्य के नाम पर रूपनारायण वसदि का निर्माण करवाया था। वर्तमान काल में कोल्हापुर के शुक्रवारी नामक प्रवेश द्वार के पास जो भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर है, वह संभवतः निम्बदेव द्वारा निर्मापित प्राचीन मन्दिर का ही भग्नावशेष है ।
शुक्रवारी दरवाजे के पास के उसी उपरिवर्तित स्थान से एक और दूसरा शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जिसमें उल्लेख है कि ई० सन् १९४३ में हाविर हलिगे में माघनन्दि के शिष्य वासुदेव ने पार्श्वनाथ के मन्दिर की आधारशिला रखी और इस मन्दिर के लिए कराड़ के शिलाहार वंश के कोल्हापुर नरेश गण्डरादित्य के पुत्र ने धनराशि प्रदान की । २
( ४ ) शिलाहार वंशीय कोल्हापुर नरेश गण्डरादित्य के पुत्र महाराजा . विजयादित्य ने ई० सन् १९५० में मडलूर स्थित पार्श्वनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भूखण्ड एवं भवनों का दान
एपिग्राफिका इण्डिका, XIX पृष्ठ 30ff.
* Ibid Vol. III pp 207 ff.
Jainism in South India & Some Jaina Epigraphs, by P. B. Desai page 120 के आधार पर
- सम्पादक
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