Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 848
________________ ७६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ के मोड़ आदि के प्राधार पर पुरातत्वविदों ने उनका (अज्जणन्दि का) समय ईसा की ८ वी हवीं शताब्दी का अनुमानित किया है । अनेक प्रकार के कष्टों, विघ्न-बाधाओं को समभाव से सहन कर नितान्त प्रतिकूल परिस्थितियों में कट्टरतम शवधर्मावलम्बियों के सुदृढ़ गढ़ों, केंद्रस्थलों में घूम घम कर प्राचार्य अज्जणन्दि ने तमिलनाड़ के निराश जैनों में प्राशा का संचार कर जिस साहस के साथ वहां जैनधर्म का पुनरुद्धार किया, उनकी इन अमूल्य जिनशासन सेवा के लिये जैन इतिहास में उनका नाम सदा सदा प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाएगा। दक्षिण के जैन इतिहास के विशेषज्ञ एवं लब्धप्रतिष्ठ पुरातत्ववेत्ता स्वर्गीय श्री पी. बी. देसाई ने अज्जणन्दि के सम्बन्ध में लिखा है : "All these facts are profoundly significant and they help us to judge the place of Ajjanandi in the bistory of Jainism in the Tamil country. During the later part of the 7th century and after, a very grave situation arose in the Tamil Country against the followers of the jain doctrine. The tide of revival in favour of the Saivite and Vaishnavite faiths began to shake the very foundations of Jainism. Saint Appar in the Kanchi area and Sambandhar in the Madura region, launched their crusades against supporters of the Jain religion. Consequently, Jainism lost much of its pres. tige and influence in the society. It was in this critical situation that Ajjapandi appears to have stepped on the scene. He must have been a remarkable personality endowed not only with profound learning and dialectical skill, but also with practical insight and organising capacity. Inspired by the noble ideals of his faith and sustained by indomitable energy, he, it seems, travelled from one end of the Country to the other, preaching the holy gospel, erecting the images and shrines in honour of the deities and popularising once again the principles and practices of Jainism." वस्तुतः यह एक बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जैन धर्मावलम्बियों पर आये हुए इस प्रकार के घोर संकट के समय जिस महापुरुष ने तमिलनाडू के हताशनिराश जैनों में नवजीवन का, नई चेतना का संचार किया उस महापुरुष के जीवन परिचय को समाज संजोकर नहीं रख सका । इस प्रकार की स्थिति में ऐसी प्राशंका का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि प्रज्जनन्दि, वर्तमान काल में जितनी परम्पराएं प्रचलित हैं, उन परम्परामों से भिन्न ही किसी यापनीय परम्परा जैसी विलुप्त परम्परा के प्राचार्य रहे होंगे। अन्यथा उन महापुरुष (अज्जणंदि) का जीवन परिचय अवश्यमेव सुरक्षित रखा जाता । विद्वद्वन्द से प्रज्जणंदि के जीवन परिचय के सम्बन्ध में गहन शोध की अपेक्षा है। 00 १Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs, by-P.B. Desai. P. ६३-६४ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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