Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 924
________________ ८६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ . उसके लिये इसके लेखक-निर्देशक प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज एवं सम्पादक मण्डल का जैन समाज सदा ऋणी रहेगा। प्रत्येक तीर्थकर के समय में होने वाले शलाका पुरुषों एवं अन्य प्रसिद्ध पुरुषों का चरित-चित्रण करके संक्षेप में अनेक ग्रंथों के सार का दोहन कर लिया गया है। आज के समय में ऐसे ही जैन इतिहास के प्रन्थ की प्रावश्यकता बहुत समय से अनुभव की जा रही थी, उसकी पूर्ति करके इतिहास समिति ने एक बड़ी कमी की पूर्ति की है, ग्रन्थ की छपाई-सफाई मादि बहुत उत्तम है, इसके लिए आप सर्व धन्यवाद के पात्र हैं। श्री प्रगरचन्द नाहटा पुस्तक बहुत ही उपयोगी है । काफी श्रम से तैयार की गई है। इससे कुछ नये तथ्य भी सामने आये हैं । दिगम्बर श्वेताम्बर तुलनात्मक कोष्टक उपयोगी है। ऐसी पुस्तक की बहुत आवश्यकता थी। श्री श्रीचन्द जैन, एम. ए., एल-एल. बी. प्राचार्य एवं उपाध्यम, हिन्दी विभाग सान्दीपनि स्नातकोत्तर महाविद्यालय • उज्जन (म. प्र.) ....."वस्तुतः इतिहास लिखना तलवार की धार पर तीव्रगति से चलना है। इस कठिन साधना में सफलता उसी विद्वान को प्राप्त होती है, जिसके मानस में सत्योपलब्धि की ललक अग्नि-ज्वाला के समान प्रज्वलित रहती है। भाचार्य श्री हस्तीमलजी म. ने जिस सुनिश्चित एवं व्यापक दृष्टिकोण को अपना कर जैन धर्म का मौलिक इतिहास लिखा है, वह उनकी सतत साधना का एक प्रविनश्वर कीर्तिस्तम्भ है। इसमें उनके विस्तृत अध्ययन, निष्पक्ष चिन्तन, अकाट्य तर्कशीलता एवं अन्तर्मुखी प्रात्मानुभूति की निष्कलंक छवि प्रस्फुटित हुई है। जिस प्रकार व्यग्र तूफानों की कसमसाहट में नाविक का चातुर्य परीक्षित होता है, उसी प्रकार सहस्राधिक विरोधी प्रमाणों की पृष्ठभूमि में एक मानवतावादी, दार्शनिक और ऐतिहासिक सत्य की स्थापना करना इतिहासकार की विवेकशीलता का योतक है । पूज्य हस्तीमलजी महाराज की लेखनी में यह वैशिष्ट्य सर्वत्र विद्यमान है । विद्वानों की यह एक मान्यता सी है कि इतिहास में पर्याप्त शुष्कता होती है । फलतः पाठक उसके अनुशीलन से घबड़ाते हैं। लेकिन पूज्य प्राचार्य की शैली पूर्णरूपेण सरस है, भाषा प्राअल है। अन्य में सर्वत्र भाषा शैली की सुपड़ता उल्लेख्य है। भावों को व्यवस्थित रूप में प्रकट करने वाली प्रवाहपूर्ण ऐसी भाषा बहत कम विद्वानों के ग्रन्थों में उपलब्ध होती है।........ . समालोच्य रचना एक ऐसे प्रभाव की पूर्ति करती है, जो सैकड़ों वर्षों से जैनमनीषियों को खटक रहा था लेकिन .प्रास्था-विश्वास की कमी के कारण कोई For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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