Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 923
________________ सम्मतियां ] डॉ० रघुवीरसिंह, एम. ए. डी. लिट्, सीतामऊ (मध्यप्रदेश ) २६ जनवरी, ७२ का पत्रांश अब तक जैन धर्म का प्रामाणिक पूरा इतिहास कहीं भी और विशेष कर हिन्दी में तो अवश्य ही देखने को नहीं मिला था, अतएव इस ग्रंथ के प्रकाशन से वह बहुत बड़ी कमी कई अंशों में पूरी होने जा रही है । श्रतः इस ग्रंथ के प्रकाशन का मैं हृदय से स्वागत करता हूं। हर्मन जेकोबी प्रादि कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने अवश्य ही जैन धर्म के इतिहास की ओर कुछ ध्यान दिया था, तथापि इधर प्राचीन भारतीय इतिहास विषयक संशोधकों और इतिहासकारों ने जैन धर्म के इतिहास तथा तत्सम्बन्धी आधार सामग्री की प्रायः उपेक्षा ही की है । जैन धर्म के इतिहास की श्राधार सामग्री अधिकतर अर्ध मागधी प्रादि प्राच्य भाषाओं में प्राप्य है एवं उनका सम्यक् ज्ञान और अध्ययन नहीं होने के कारण भी इतिहासकारों ने उक्त सामग्री में प्रायः जानकारी की ओर ध्यान नहीं दिया था, तथापि जो कुछ ज्ञात हो सका है उससे यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन काल में तो अवश्य ही जैन धर्मावलम्बियों की भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, प्रतएव प्राचीन भारतीय इतिहास के उस पहलू का पूरा-पूरा अध्ययन किये बिना तत्सम्बन्धी सही परिप्रेक्ष्य की जानकारी नहीं हो सकेगी। मेरा विश्वास है कि उस दृष्टि से भी जैन धर्म का यह मौलिक इतिहास विशेष रूप से उपयोगी और सहायक होगा । I ... पूर्व ऐतिहासिक काल के विवरण को जैन ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत कर उस काल पर प्रागे शोध करने वालों को तत्सम्बन्धी अधिक जानकारी और अध्ययन में बहुत बड़ी सहायता दी गई है । प्रारम्भिक तीर्थंकरों के काल आदि की समस्या अवश्य उठती है । तत्सम्बन्धी जैन परम्परानों का अब तक अध्ययन श्रौर विश्लेषण नहीं हुआ, क्योंकि सुनिश्चित रूप में सुबोध ढंग से वह इतिहासज्ञों को सुलभ नहीं थी । अतः अब इस मौलिक इतिहास में प्रस्तुत विवरण के आधार पर वह भी भविष्य में सम्भव हो सकेगा । में जैन धर्म के तत्त्वों आदि की भी सरल सुबोध ढंग से व्याख्या की गई है । यों इस ग्रन्थ को बहुविध जानकारी से परिपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया I जैन धर्म ही नहीं भारतीय संस्कृति और पुरातन परम्पराओंों के इस पहलू विशेष की जानकारी के इच्छुकों के लिये यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी प्रमाणित होगा । अतः यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि हिन्दी साहित्य की विशेष उपलब्धि के रूप में इस ग्रंथ को विशेष स्थान प्राप्त होगा । एतद् [ ८६५ पं. हीरालाल शास्त्री ( नसियां, ब्यावर ) मैंने इसका प्राद्योपान्त अध्ययन किया । दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा विषयक ग्रन्थों का मनन करके जिस निष्पक्षता से यह ग्रंथ लिखा गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org

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