Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 861
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ८०३ ___ कच्छ प्रदेश के राजा लक्ष ने जो कि अपने समय का बड़ा शक्तिशाली राजा और ग्राहऋपु का अनन्य सखा था, मूल राज से कहा कि वह ग्राहऋषु को अपने बन्दीगह से मुक्त कर दे परन्तु मूलराज ने उसके प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि ग्राहऋपु दुराचारी, दुष्ट, अत्याचारी होने के साथ-साथ गौमांसभक्षक है, अतः उसे किसी भी दशा में क्षमा नहीं किया जा सकता। ___ मूलराज द्वारा अपने प्रस्ताव के ठुकरा दिये जाने पर कच्छ के राजा लक्ष ने मूलराज के साथ युद्ध की घोषणा कर दी। दोनों पक्षों में जमकर लोमहर्षक युद्ध हुआ और अन्ततोगत्वा मुलराज ने भल्ल के एक भीषरण प्रहार से लक्ष को निष्प्राण कर भूमिसात कर दिया। रणभूमि में निष्प्राण पड़े लक्ष के मुख पर मूलराज ने पाष्णिप्रहार किया। इस पर लक्ष की माता ने मूलराज को श्राप दिया कि उसको और उसके उत्तराधिकारियों को अन्त समय में कुष्ट रोग होगा। इस प्रकार मूलराज ने सौराष्ट्र और कच्छ - इन दोनों ही राज्यों पर अधिकार कर पाटण राज्य के पुरातन प्रभुत्व को पुनः संस्थापना की। __ कुछ दिन प्रभास तीर्थ में रहने कर मूलराज ने नवविजित कच्छ और सौराष्ट्र राज्यों के शासन की सुव्यवस्था की और वह अपनी सेना और शत्रराजाओं की विपुल सम्पदा के साथ अनहिलपुर पाटन लौट आया। मूलराज के शासनकाल में गुजरात की सर्वतोमुखी प्रगति हई। उसने राजस्व आदि करों में उल्लेखनीय कमी कर किसानों की आर्थिक स्थिति को समुन्नत किया । मूलराज निष्ठावान् शिवोपासक था और सभी धर्मावलम्बियों के प्रति समभाव और समादर रखता था। उसने अनहिलपुरपत्तन में मूलराज-वसहि का निर्माण कर जैन धर्मावलम्बियों के प्रति मधुर व्यवहार प्रदशित किया । मूलराज की राजसभा में सोमेश्वर जैसे अपने समय के अप्रतिम कवि थे इससे साहित्य और संस्कृति के प्रति उसके प्रगाढ़ प्रेम का परिचय प्राप्त होता है। - मूलराज ने अपने शासनकाल में अपने सोलंकी राज्य को ऐसी सुदृढ़ नींव पर शक्तिशाली राज्य का स्वरूप प्रदान किया कि पीढ़ियों तक उसके उत्तराधिकारियों को किसी प्रकार की बड़ी कठिनाई का अनुभव नहीं हुया और वे समय समय पर विदेशी आक्रान्ताओं से आर्यधरा, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम रहे। मूलराज द्वारा संस्थापित सोलंकी (चालुक्य) राजवंश के भीम, दुर्लभ राज, कुमारपाल आदि राजाओं ने जैनधर्म की अभ्युन्नति, अभिवृद्धि में प्रगाढ़ रुचि के साथ जो उल्लेखनीय योगदान दिया, वह जैन इतिहास में सदा-सदा सम्मान के साथ स्मरणीय रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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