Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 856
________________ ७६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास --- भाग ३ प्रतिदिन मूलराज के प्रति किये जा रहे इस प्रकार के अद्भुत मानापमान का बड़ा उपहास किया जाता था।' अन्ततोगत्वा मूलराज के श्रद्धालु शुभचिन्तकों ने और मूलराज ने इस प्रकार की हास्यास्पद एवं अपमानजनक स्थिति का सदा के लिये अन्त करने का अति निगूढ़ निश्चय किया। सदा की भांति मुरापान से उन्मत्त अणहिल्लपुरपट्टनाधिपति सामन्तसिंह ने आषाढशुक्ला पूर्णिमा की दुग्धधवला शुभ्र रात्रि में मूलराज को अपने सिंहासन पर बड़े समारोह के साथ अभिषिक्त किया। उसने स्वयं "प्रणहिल्लपूरपदनाधिपति मूलराज की जय हो" के जयघोष किये। कुछ समय तक वह दोनों हाथ जोड़े मूलराज के समक्ष एक प्राज्ञाकारी सामन्त के समान खड़ा रहा । इस प्रकार सामन्तसिंह ने उन्मत्तावस्था में अपनी "राजदान" की प्रथम धुन तो पूर्ण कर दी । परन्तु अर्द्धरात्रि में जब सदा की भांति मूलराज का उपहास करने की धुन उसके शिर पर सवार हई और मूलराज को राजसिंहासन से धक्का दे कर उतारने के लिये ज्यों ही वह आगे बढ़ा कि मूलराज के प्रति स्वामिभक्ति की शपथ लिये हुए सेनानियों एवं सेवकों ने उस विशाल कक्ष में प्रवेश कर सामन्तसिंह को बन्दी बना लिया । पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार मन्त्रियों, सेनानियों एवं गण्य मान्य नागरिकों ने मूलराज का विधिवत् रात्रि के द्वितीय प्रहर की अवसान वेला में अरणहिल्लपुर पट्टन के राजसिंहासन पर अभिषेक किया। इस प्रकार वनराज चावड़ा द्वारा वि. सं० ८०२ में संस्थापित चापोत्कट राजवंश के अणहिलपुरपट्टन के राज्य पर वि०सं० ६६८ में सोलंकी मूलराज का अधिकार हो गया। यह मूलराज सोलंकी (चालुक्य) राजवंश का संस्थापक हुना। मूलराज द्वारा अन हिलपुरपत्तन के चापोत्कट राज्य पर अधिकार किये जाने के सम्बन्ध में विधि पक्ष (अंचलगच्छ) के इतिहासविद् विद्वान् प्राचार्य मेरुतुंग ने अपने ऐतिहासिक महत्व के ग्रन्थ प्रबन्धचिन्तामरिण में जो विवरण दिया है, वह इस प्रकार है : ___ "स इत्थमनुदिनं विडम्ब्यमानो निजपरिकर सज्जीकृत्य विकलेन मातुलेन स्थापितो राज्ये तं निहत्य सत्यं एव भूपतिर्बभूव । स० ६६८ वर्षे श्री मूल राजस्य राज्याभिषेको निष्पन्नः । २ __मूल पाठ की एक ("एम" संज्ञा वाली) प्रति में एतद्विषयक उल्लेख निम्नलिखित रूप में है : 'बालार्क इव तेजोमयत्वात्सर्ववल्लभतया पराक्रमेगग मातुलमहिपालं प्रवर्द्धमान-साम्राज्य कुर्वन मदमने न श्री सामंतसिंहेन साम्राज्येऽभिषिच्यते त्वमत्तेनोत्थाप्यते च तदादि चापोत्कटाना दानमुपहासप्रसिद्ध । -प्रबंध चितामणि, पृष्ठ २३ २ प्रबन्ध चितामरिण, पृ० २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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