Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 855
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] ८ ७९७ बिठा देता, उसका राज्याभिषेक करता राज्याभिषेक के पश्चात् राज्याभिषेक महोत्सव के उपलक्ष में १०८ तोपें दागने का आदेश देता । जब तक सुरा का उन्माद उसके मन मस्तिष्क पर छाया रहता, तब तक हाथ जोड़ कर परम आज्ञाकारी अनुचर की भांति मूलराज के समक्ष खड़ा रहता । ज्योंही मद्य का मद ढलने लगता मद्यपात्र में और मद्य उन्डेल कर उसे पानी की तरह पी जाता । मध्यरात्रि में, किसी नाटक के पटाक्षेप की भांति उसके मस्तिष्क पर दूसरी धुन सवार होती । लाल-लाल आंखें तरेर कर वह मूल राज को घूरता, डांट पर डांट और फटकार पर फटकार की वर्षा करता एवं उसे हाथ पकड़ कर सिंहासन से उतार, उस विशाल समारोह कक्ष से बाहर कर देता और प्रति कर्कश स्वर में समारोह का विसर्जन कर सुरापान से निश्चेष्ट निस्संज्ञ हो, कहीं भी लुढ़क जाता । यह सामन्तसिंह का प्रतिरात्रि का सुनिश्चित एवं नियत कार्यक्रम था । मूलराज के किसी विजय अभियान से लौटने पर तो इस प्रकार के समारोह की शोभा वस्तुतः पराकाष्ठा पर पहुंच जाती थी । इधर मूलराज मन ही मन प्रपीड़ित था, प्रतिरात्रि में अपने मातुल द्वारा किये जा रहे इस प्रकार के हास्यास्पद एवं अपमानजनक व्यवहार से । उधर मन्त्रीगरण, सेनानी, सैनिक और प्रजाजन सभी मूलराज के शौर्यशाली साहसिक विजय अभियानों से पूर्णरूपेण प्रभावित थे । इसका एक बहुत बड़ा कारण था। दो तीन पीढ़ी से चापोत्कट राजवंश के राजसिंहासन पर आसीन होते आये राजाओं ने सुरापान के वंशीभूत हो पाटण के प्रभुत्व को उत्तरोत्तर क्षीण करना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने अपने महाप्रतापी पूर्वज वनराज चावड़ा द्वारा संस्थापित विशाल गुर्जरात्र राज्य की चारों दिशाओं में दूर-दूर तक प्रसृत सीमाओं को अपनी सुरा सुन्दरी में निरत रहने की प्रवृत्तियों के कारण क्रमशः संकुचित, सीमित करते करते प्रतापी चावड़ा साम्राज्य को एक साधारण राजशक्ति की स्थिति में ला रख दिया था। इन उत्तरवर्ती चापोत्कट राजाओं की विलासप्रियता एवं अकर्मण्यता के परिणामस्वरूप पाटरण के प्रभुत्व को एवं पारण राज्य की प्रतिष्ठा को भी बड़ा धक्का लगा था । जब से मूलराज ने यौवन के द्वार की दहली पर अपना प्रथम चरण रखा तभी से साहसिक सैनिक अभियान प्रारम्भ कर पड़ोसी राज्यों द्वारा अनधिकृतरूपेण आत्मसात् किये गये क्षेत्रों पर पुनः पाटण का प्रभुत्व स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया । मूलराज द्वारा किये गये शौर्यपूर्ण सफल विजय अभियानों के फलस्वरूप पाटण राज्य की सीमानों के साथ साथ पाटण राज्य की प्रतिष्ठा में भी आशातीत अभिवृद्धि होने लगी । यही कारण था कि मूल राज स्वल्पकाल में ही बड़ा लोकप्रिय हो गया । उसके प्रति जन-जन की श्रद्धा ने जनमानस में गहरा घर कर लिया । प्रजाजनों के प्रीति एवं श्रद्धापात्र मूलराज के प्रति सामन्तसिंह के इस प्रकार के अशोभनीय व्यवहार से सभी लोग अप्रसन्न थे । प्रजाजनों में सामन्तसिंह द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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