Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 805
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७४७ सर्वदेव ने कहा :--"वत्स ! तुम सुपुत्र हो । पिता की आज्ञा का पालन करने में तुम्हें इसी प्रकार कृत-संकल्प रहना चाहिये । तुम ध्यान से सुनो । महेन्द्र सूरि ने हमारी इस छिपी हुई पैतृक सम्पत्ति को हमें बताया है । मैंने इस सम्बन्ध में यह प्रतिज्ञा की थी कि इसके बदले में जो आपको अच्छा लगेगा उसका आधा मैं आपको दूंगा। अब वे मेरे पुत्र युगल में से अर्थात् तुम दोनों में से एक को मांग रहे हैं। बस, इसी चिन्ता से मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा हूं कि क्या करूं ? हे पुत्र ! इस घोर धर्म संकट से तुम्हीं मेरा उद्धार कर सकते हो । मेरी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये तुम उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लो।" यह सुनते ही विद्वद् शिरोमणि धनपाल बड़ा क्रुद्ध हुआ और कहने लगा :-"जैसा आपने कहा है । उसको कोई भी उचित नहीं कहेगा । हम वेद वेदान्तपाठी ब्राह्मण सब वर्गों में उत्तम वर्ण वाले हैं। मुजराज मुझे सदा अपना पुत्र ही समझते थे। मैं राजा भोज का बाल सखा हूं। इन शूद्रों की दीक्षा ग्रहण करके मैं महाराज मुंज के और आपके पूर्वजों को रसातल में गिराऊ यह कभी नहीं हो सकता । प्रापको ऋण से मुक्त करने के लिये मैं सब पूर्वजों को पाताल में गिरा, इस प्रकार का सज्जनों द्वारा निन्दित कार्य मैं कभी नहीं करूंगा। मेरा यह अन्तिम निर्णय है कि आपके इस कार्य से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। अब आप जैसा उचित समझे वैसा करें।" यह कहकर वह अन्यत्र चला गया। सर्वदेव द्विज की आंखों से अश्रु पात होने लगा। प्रांसुओं की धारा बह चली । वह निराश हो गया कि अब इस घोर धर्म संकट से वह कैसे बचे। वह इस प्रकार चिन्ता सागर में डूब रहा था कि उसका दूसरा पुत्र शोभन घर में पाया । अपने पिता को चिन्तामग्न देखकर पिता से पूछा:-"आप शोकमग्न क्यों हैं ?" सर्वदेव ने निराशाभरे स्वर में कहा :--"जिस कार्य के सम्पादन में तुम्हारे बड़े भाई धनपाल ने भो मेरी सब प्राशाओं पर पानी फेर दिया उस कार्य को क्योंकि अभी तुम बालक हो कैसे सिद्ध कर सकोगे । तुम जाओ। स्वयं द्वारा किये गये कर्मों का फल मैं स्वयं भोग लगा।" अपने पिता के इस प्रकार निराशापूर्ण वचन सुनकर शोभन ने कहा :"पितृदेव ! मेरे जीवित रहते आप कभी इस प्रकार विह्वल न हों। बड़े भाई धनपाल राजपूज्य हैं और हमारे परिवार का भरण-पोषण करने में सक्षम हैं । अतः उसकी कृपा से मैं तो पूर्णतः निश्चिन्त हूं। आप शीघ्र ही प्राज्ञा प्रदान कीजिये। मैं आपकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करूंगा। भाई धनपाल तो वेदः वेदांग और स्मृति शास्त्रों के पारगामी विद्वान हैं। क्या करणीय है और क्या प्रकरणीय है इसका अपनी इच्छानुसार विवेचन करने में वे निष्णात हैं। आपको ज्ञात ही है कि मैं तो बाल्यावस्था से ही नितान्त सरल हं और इस दृढ़ आस्था वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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