Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 844
________________ प्राचार्य प्रज्जरणन्दि (आर्यनन्दि) विक्रम की ८वी-हवीं शताब्दी में प्रज्जणन्दि नामक एक महान् जिनशासन प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने तमिलभाषी प्रदेश में लुप्तप्राय हुए जिनशासन को पुनरुज्जीवित किया। ईसा की सातवीं शताब्दी में तिरु ज्ञानसम्बन्धर, तिरु अप्पर आदि शैव सन्तों द्वारा दक्षिणापथ के मदुरई एवं कांची राज्यों में शैव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये प्रारम्भ की गई धार्मिक क्रान्ति अथवा धार्मिक विप्लव में राज्याश्रय का पीठ-बल प्राप्त किये शैवों द्वारा जैनधर्मावलम्बियों पर जो लोमहर्षकहृदयद्रावी अत्याचार किये गये, उनके परिणामस्वरूप जैन धर्म तमिलभाषी अनेक क्षेत्रों में तो वस्तुतः लुप्तप्राय हो गया था। इस धार्मिक विप्लव की प्रचण्ड लहर का कुप्रभाव पाण्ड्य एवं पल्लव राज्यों के पड़ौसी चोल और चेर राज्यों पर भी पड़ा और इसका परिणाम यह हुआ कि उस विप्लव से पूर्व जो जैनधर्म उन प्रदेशों का बहुजनसम्मत धर्म था वह विप्लव के पश्चात् नाम मात्र के लिये वहां अवशिष्ट रह गया। ज्ञानसम्बन्धर आदि अनेक शैव सन्तों द्वारा बनाये गये तेवारम् के पदों के माध्यम से चारों ओर जैनों एवं बौद्धों के विरुद्ध धुंप्रांधार प्रचार किया गया। जैनों के विरोध में बनाये गये उन पदों का नगर नगर, गांव-गांव और घर घर प्रचार किया गया। इस प्रकार के सामूहिक एवं सुदूरव्यापी प्रयासों द्वारा जैन श्रमणों तथा जैनधर्मावलम्बियों के प्रति चारों ओर घृणा का प्रचार किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग अर्द्ध शताब्दी तक तो कतिपय कट्टरपंथी क्षेत्रों में किसी जैन श्रमण का पदार्पण तक दूभर हो गया था। इस प्रकार की संकट की घड़ियों में प्राचार्य अज्जणन्दि ने बड़े साहस के साथ उन क्षेत्रों में जहां जिनेश्वर अथवा जैन का नाम तक लेने वाला नहीं रह गया था, वहां जैन धर्म की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने का बीड़ा उठाया। अज्जणन्दि ने तामिलनाड़ के उन प्रदेशों में घूम घूम कर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया। सदा से अहिंसा में अट आस्था रखते हए शांति की उपासना करते आ रहे जैनधर्मावलम्बियों को धर्मक्रान्ति के नाम पर उठी धर्मोन्माद की प्रचण्ड प्रांधी के कटु अनुभवों से बड़ी निराशा हुई थी । वह निराशा लगभग अर्द्ध शतक तक जैनों के मन और मस्तिष्क पर घर किये रही । उस निराशा को अज्जणन्दि ने अपने अन्तस्तल स्पर्शी उपदेशों से दूर कर जैनधर्मावलम्बियों में नई आशा का संचार किया। जैनधर्मावलम्बियों के अन्तर्मन में नव्य-नूतन आशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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