Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 839
________________ वादि पैताल शान्ति सूरि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में थारपद्र गच्छ में शान्ति सूरि नामक एक प्रभावक प्राचार्य हुए हैं। जिला जालोर के अन्तर्गत रायसीरंग ग्राम के एक जिनमन्दिर में उपलब्ध वि० सं० १०८४ के शिलालेख से अनुमान किया जाता है कि प्रापका दूसरा नाम संभवत: शान्तिभद्रसूरि भी था । रायसीण ग्राम के उस शिलालेख में यह उल्लेख है कि थारपद्र गच्छ के शान्तिभद्रसूरि ने वि० सं० १०८४ में जिन - प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की । उनकी 'जीव- विचार प्रकरण" और 'उत्तराध्ययन टीका' ये दो रचनाएं उपलब्ध होती हैं । इन दोनों रचनाओं के अध्ययन से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि श्री शान्तिसूरि प्राकृत तथा संस्कृत दोनों भाषानों के प्रकाण्ड पंडित थे और उनका सैद्धान्तिक ज्ञान गहन एवं तलस्पर्शी था । आपने अपनी 'जीवविचार प्रकरण' नामक रचना में अपने गच्छ अथवा अपनी गुरु परम्परा विषयक किसी प्रकार का विवरण न देकर केवल अपने नाम का ही उल्लेख किया है । अपनी दूसरी कृति 'उत्तराध्ययन-टीका' में ग्रापने अपना केवल इतना ही परिचय दिया है कि वे 'बडगच्छ' की शाखा - थारपद्र गच्छ के मुनि थे । शान्तिसूरि की इन दो कृतियों से तो उनका केवल इतना ही परिचय प्राप्त होता है, इससे अधिक नहीं । किन्तु प्रभावक चरित्र और तपागच्छ पट्टावली में वादिवैताल शान्तिसूरि के जीवन की कतिपय महत्वपूर्ण घटनाओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । प्रभावक चरित्र में प्राचार्य श्री शान्तिसूरि का जो जीवन-वृत्त दिया हुआ है, वह सार रूप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रभावक चरित्रकार ने शान्तिसूरि का जीवन वृत्त प्रस्तुत करते हुए प्रारम्भ में "पातु वोवादि - वैतालः कालो दुर्मन्त्रवादिनाम् ।" इस पद से जो उनकी स्तुति की है, इससे ही उनके महान् प्रभावक आचार्य होने का पता चलता है । प्रभावक चरित्रकार के उल्लेखानुसार उन्नतायु नामक ग्राम के श्रीमाल वंशीय श्रेष्ठि श्री घनदेव की धर्मपत्नी धनश्री की कुक्षि से शान्तिसूरि का जन्म " जीवन श्रेयस्कर मण्डल, मेहसाना द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित जीव विचार प्रकरण पंचम संस्करण पृ० ४-५ २ ता संपइ संपत्ते, मणुयत्ते दुल्हे सम्मत्ते । सिरि संति सूरि सिट्ठे, करेह भो ! उज्जमं धम्मे (५०) जीव विचार | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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