Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 837
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती श्राचार्य ] [ ७७६ पानादि से सम्मानित कर कवि धनपाल ने उनसे कहा - " आप लोग अभी ताम्बूलपत्रों से भरे अपने शकटों के समूह के साथ गुर्जर भूमि की ओर प्रस्थान कर रहे हैं । मेरे एक भाई को भी कृपया आप अपने साथ लेते जाइये और उन्हें सकुशल अन हिल्लपुरपत्तन नगर में पहुंचा दीजिये । " ताम्बूलपत्रों के व्यापारियों ने कवि धनपाल के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । महाकवि धनपाल ने उन व्यापारियों को १०० स्वर्णमुद्राएं भेंट कीं । व्यापारियों ने पान के पिटारों के बीच एक शकट में सूराचार्य को बैठा दिया । व्यापारियों के शकटों का समूह गुर्जरभूमि की ओर उसी समय प्रस्थित हो गया । शकटों को वहन करने वाले पुष्ट वृषभ द्रुतगति से गुर्जर भूमि की ओर बढ़ने लगे । उधर प्रतीक्षा से ऊबकर भोज के सैनिकों ने मठ में प्रवेश किया। उन्होंने देखा कि मठ के एक विशाल कक्ष में बहुमूल्य परिधान पहने एक स्थूलकाय साधु एक पट्ट पर बैठा हुआ है। सैनिकों के नायक ने उन्हीं वृद्ध को सूराचार्य समझ कर, उन्हें ले जाकर राजा भोज के सम्मुख उपस्थित कर दिया । उस वृद्ध सन्त को देख कर घटना की वास्तविकता मालवेश की समझ में श्रा गई। वे बोल उठे - "हमारी राजसभा को पराजित कर और मेरे सैनिकों को भी धोखे में रखकर वह गुर्जर कवि चला गया । वह बड़ा प्रत्युत्पन्नमति एवं चतुर निकला ।" सूराचार्य सकुशल प्रणहिलपुर पट्टण पहुंच गये । श्राचार्य द्रोण और राजा भीम दोनों प्रत्यन्त प्रसन्न हुए। राजा भीम ने एक प्रश्न किया - " महर्षिन् ! मैं यह जानने को उत्कण्ठित हूं कि आपने मालव नरेश भोज की स्तुति किस प्रकार की ।" सूराचार्य ने कहा - "राजन् ! मैं श्राप के अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति कैसे कर सकता हूं? मैंने जिन शब्दों में राजा भोज की प्रशंसा की, उसे दत्तचित्त हो सुनिये । राजसभा में मेरे प्रवेश के समय राजा भोज ने अपने दुर्दान्त पौरुष का मेरे समक्ष प्रदर्शन करने के लिए एक ओर रखी हुई शिला पर लक्ष्य साध कर बाग चलाया और वह बारग शिला-वेध कर दूर जा गिरा । मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से यह छुपा नहीं रह सका कि उस शिला में पहले ही छेद कर उसे शिला के रंग के चूर्णों से बड़ी चतुराई के साथ भर दिया गया था। मैंने राजा की जिस श्लोक से प्रशंसा की उसके दो अर्थ होते हैं । पहला यह कि आपने शिलावेध कर दिया, पर अब भविष्य में कभी इस प्रकार की धनुक्रीड़ा मत करना । पाषारण-भेदन की अपनी इस रसिकता का प्रब त्याग ही करदें तो अच्छा है । अन्यथा पाषाणभेदन का आपका यह व्यसन उत्तरोत्तर बढ़ता ही जायगा और अन्ततोगत्वा भय इस बात का है कि आप अपने कुलपर्वत अर्बुद पर्वताधिराज पर भी शरप्रहार कर बैठेंगे । आपके शरप्रहार से अर्बुदगिरि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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