Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 814
________________ ७५६ ]. [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - - भाग ३ अनेक प्रकार के ईहापोह करने लगे । अन्ततोगत्वा धनपाल की नववर्षीया छोटी पुत्री उसके पास आई और उसने अपने पिता से बड़े प्यार भरे स्वर में चिन्ता का कारण पूछा। चिन्ता का कारण ज्ञात होते ही बालिका ने अपने पिता को आश्वस्त करते हुए उत्साहपूर्ण स्वर में कहा - " पिताजी ! आप इस बात की रंच मात्र भी चिन् न कीजिये । पुस्तक को जला दिया तो क्या हुआ, उसका एक-एक अक्षर, एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति सब कुछ मुझे कण्ठस्थ है ।" यह कहती हुई बालिका ने सहज ही कण्ठस्थ हुई तिलकमंजरी का पाठ प्रादि से ही अपने पिता को सुनाना प्रारम्भ किया । धनपाल को अपनी पुत्री के मुख से तिलकमंजरी का प्रस्खलित एवं पूर्णत: विशुद्ध पाठ धारा प्रवाह रूप में सुनकर ऐसी अनुभूति हुई मानो बालरूपा सरस्वती ही उसके समक्ष बोल रही हो । बालिका ने अपने पिता से पूछा - "क्यों पिताजी ! अब तो आपको पक्का विश्वास हो गया न, कि श्रापकी अनमोल कृति अमर है, उसे संसार की कोई शक्ति नहीं जला सकती । अब भाप उठिये । स्नान, पूजा आदि से निवृत्त हो शीघ्र ही भोजन कर लीजिये, जिससे कि मैं आपको तिलकमंजरी का पाठ लिखवाना प्रारम्भ करूं।" महाकवि धनपाल के चित्ताकाश पर जो चिन्ता की घनी काली घटाएं मंडरा रहीं थीं, वे तत्काल छिन्न-भिन्न हो पल भर में ही तिरोहित हो गई । धनपाल ने निश्चिन्त हो स्नान-ध्यानादि के पश्चात् भोजन किया और अपनी पुत्री के मुख से सुन-सुन कर तिलकमंजरी को लिखना प्रारम्भ कर दिया। कतिपय दिनों के अहर्निश प्रयास से धनपाल ने अपनी पुत्री की सहायता से पूर्ण तिलकमंजरी के २७ हजार श्लोक प्रमाण पाठ में से २४ हजार श्लोक प्रमारण कण्ठस्थ पाठ लिपिबद्ध कर लिया । बालिका कदाचित् कहीं-कहीं जिन स्थलों को नहीं सुन पाई थी, वे स्थल रिक्त रह गये । इस प्रकार तिलकमंजरी के जला दिये जाने के कारण उसका तीन हजार श्लोक प्रमाण अंश विस्मृति के गह्वर में विलीन हो गया । तिलकमंजरी का पुनरालेखन सम्पन्न होते ही धनपाल ने अपने परिवार के साथ धारा नगरी से पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया। राजा भोज द्वारा अपनी कृति तिलकमंजरी के जला दिये जाने के पश्चात् धनपाल को धारा नगरी का निवास किंचित्मात्र भी सुखद अथवा शान्तिकर प्रतीत नहीं हो रहा था। बड़ी तीव्र गति से पश्चिम की ओर अग्रसर होता हुआ धनपाल अपने परिवार के साथ मरुधरा के सत्यपुर ( वर्तमान जालोर) नामक नगर में पहुंचा । धनपाल सत्यपुर में सुखपूर्वक रह कर अपना अधिक समय जिनाराधन में व्यतीत करने लगा । उसने भगवान् महावीर के चैत्य में "देव निम्मल" नाम की महावीर की स्तुति की रचना की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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