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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
की रचना की हो । वस्तुतः ये चारों श्लोक समन्तभद्र से पर्याप्त उत्तरकालवर्ती विद्वानों की रचनाएं हैं। इसका प्रमाण है शक सं. १०५० तदनुसार वीर नि. सं. १६५५ के श्रमण बेल्गोल के स्तम्भलेख में उट्ट कित श्लोक-युगल । यह तो साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी मानेगा कि अनन्तज्ञान-दर्शन एवं अक्षय अव्याबाध अनन्त शाश्वत सुख प्राप्ति को ही अपना चरम-परम लक्ष्य समझने वाले समन्तभद्र जैसे उच्चकोटि के तत्वज्ञ विद्वान् स्वयं के लिये इस प्रकार के अहं से भरे गर्वोक्तिपूर्ण उद्गार अपने मुख से अथवा लेखनी से कभी अभिव्यक्त नहीं कर सकते।
प्राचार्य समन्तभद्र का जिस श्रद्धाभक्ति के साथ जिनसेन आदि दिगम्बर परम्परा के महान ग्रन्थकारों ने स्मरण किया है, उसी श्रद्धा एवं सम्मान सहित कलिकाल सर्वज्ञ के (अतिशयोक्तिपूर्ण) विरुद से विभूषित आचार्य हेमचन्द्र तथा आवश्यकसूत्र-टीका के निर्माता यशस्वी टीकाकार मलयगिरि-इन श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने भी महान् स्तुतिकार और स्वयम्भूस्तोत्र के श्लोक के उल्लेख के साथ. आद्यस्तुतिकार इन महिमास्पद शब्दों में इन्हें स्मरण किया है। इससे यह प्रकट होता है कि विक्रम की ११वीं बारहवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर परम्परा में भी समन्तभद्र अपने ही प्राचार्य के रूप में मान्य थे। श्र तकेवली भद्रबाहु के पश्चात् समन्तभद्र ही एक ऐसे आचार्य हैं, जिन्हें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों द्वारा अपनी-अपनी परम्परा का प्राचार्य मानने का गौरव प्राप्त हुआ है।
प्राचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं :-(१) प्राप्तमीमांसा-अपर नाम देवागम, (२) स्वयंभूस्तोत्र, अपर नाम चतुर्विंशति जिन स्तुति, (३) स्तुति विद्या और (४) युक्त्यनुशासन । (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार को भी समन्तभद्र की ही कृति माना जाता रहा है किन्तु प्रोफेसर डा. हीरालालजी ने, जैसा कि पहले बताया जा चुका है, रत्नकरण्ड श्रावकाचार को अन्यकर्तृक सिद्ध किया है।
अनेक विद्वानों ने प्राचार्य समन्तभद्र की उपरिवरिणत कृतियों में इस प्रकार के अनेक तथ्यों को खोजा है जो कि श्वेताम्बर मान्यता के पोषक बताये जाते हैं। इस विषय में गहन शोध के अनन्तर ही प्राधिकारिक रूप में कुछ कहा जा सकता है। .
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