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बोर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती माचार्य ]
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इस नवीन गच्छ की स्थापना के पश्चात् आचार्य बटेश्वर ने थराद, उमरकोट-जो उस समय आकाशवप्र के नाम से विख्यात था, प्रादि अनेक क्षेत्रों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया।
बटेश्वरसूरि बड़े ही शान्त और सौम्य प्रकृति के प्राचार्य थे। अपने प्रतिभाशाली प्रभावक व्यक्तित्व मौर वाणी की माधुरी के कारण वे उन सभी क्षेत्रों में, जहां-जहां उन्होंने विचरण किया, बड़े ही लोकप्रिय हो गये। उन्होंने अन्तस्तलस्पर्शी उपदेशों से विभिन्न क्षेत्रों के अनेक भव्य प्राणियों को धर्म-मार्ग पर मारूढ़ एवं स्थिर किया।
प्राचार्य बटेश्वरसरि के पट्टधर शिष्य का नाम तत्वाचार्य और प्रपदृघर प्राचार्य का नाम उद्योतन सरि था। इनके प्रशिष्य उद्योतनसूरि ने "कुवलयमाला" नामक एक उत्कृष्ट कोटि के ग्रन्थ की रचना की, जो प्राकृत कथा साहित्य का अनेक शताब्दियों से बड़ा लोकप्रिय ग्रन्थ रत्न रहा है।
उद्योतनसरि के गुरुभ्राता यक्ष महत्तर के एक महातपस्वी प्रमुख शिष्य कृष्णर्षि ने कालान्तर में कृष्णर्षिगच्छ की स्थापना की, जो हारिल गच्छ का ही उपगच्छ अथवा प्रशाखा रूपी गच्छ माना गया है।
इस थारपद गच्छ की एक प्रशाखा के रूप में वि० सं० १२२२ में पिप्पलक गच्छ की उत्पत्ति हुई।
थारपद्र गच्छ में अनेक प्रभावक प्राचार्य हुए हैं। इस गच्छ के विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के एक प्राचार्य वादिवैताल विरुद से विभूषित शान्ति सरि ने उत्तराध्ययन सत्र पर टीका की रचना की। प्राचार्य शान्तिसरि द्वारा रचित उत्तराध्ययन वृत्ति अनेक गूढ़ तत्त्वों को समीचीनतया बड़ी सुगमता से समझा देने वाले प्रतीव रोचक एवं शिक्षाप्रद दृष्टांतों एवं हृदयस्पर्शी कथानकों से प्रोत-प्रोत है । इनके स्वर्गारोहण काल के सम्बन्ध में पट्टावली समुच्चयकार ने लिखा है :
विक्रम षण्णवत्यधिक सहस्र १०६६ वर्षे श्री उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिकृत् थारपद्रीय गच्छीय वादि वैताल श्री शान्तिसूरि स्वर्गभाक् ।
___ इन्हीं वादि वैताल शान्तिसूरि के सम्बन्ध में धर्मघोषसूरि ने दुस्समासमणसंघथयं की प्रवचूरि में लिखा है :
वल्लभीसंघकज्जे, उज्जमिनो जुगपहाणतुल्लेहि ।
गंघव्ववाइवेपाल, संतिसूरिहिं बहुलाए । अर्थात्-वल्लभी पर संकट के समय वादिवैताल शान्ति सूरि ने एक युगप्रधान प्राचार्य के समान वल्लभी के संघ के हित साधन के लिए अति कठोर परिश्रम के साथ अनेक उल्लेखनीय कार्य किये ।
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