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१०. सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती सम्राट् सम्प्रति के प्रतिबोधक आचार्य सुहस्ती वासिष्ठ गोत्री थे। वे विविध अध्यात्म-आयामो के उद्घाटक थे। उनका जन्म वी० नि० १६१ (वि० पू० २७६) मे हुमा। आचार्य महागिरि की भाति ३० वर्ष की अवस्था मे उन्होने दीक्षा ग्रहण की। उनके दीक्षागुरु तपोधन आचार्य स्थूलभद्र थे। आर्य सुहस्ती को आचार्य स्थूलभद्र के उपपात मे रहकर अध्ययन करने का अधिक अवकाश न मिल सका था। आचार्य सुहस्ती की दीक्षा के स्वल्प समय के बाद ही आचार्य स्थूलभद्र का स्वर्गवास हो गया था। ___ आर्य सुहस्ती के शिक्षागुरु आर्य महागिरि थे। उनसे आगमो एव पूर्वो का गम्भीर अध्ययन उन्होने किया। दस पूर्वधारी आचार्यों की परम्परा मे आर्य महागिरि प्रथम श्रुतकेवली एव आर्य सुहस्ती द्वितीय श्रुतकेवली हैं। आचार्य पद का दायित्व उन्होने वी०नि० २४५ (वि० पू० २२५) मे सम्भाला था। ___ जैन धर्म को विस्तार देने मे आर्य सुहस्ती का विशिष्ट अनुदान है। सम्राट सम्प्रति उनके धर्मप्रचार के महान् सहयोगी थे। आचार्य सुहस्ती को सम्राट सम्प्रति का योग मिला, उसके पीछे महत्त्वपूर्ण इतिहास है।
आचार्य महागिरि के साथ एक बार आचार्य सुहस्ती का पदार्पण कौसाम्बी मे हुआ । स्थान की सकीर्णता के कारण दोनो आचार्यों का शिष्य परिवार भिन्नभिन्न स्थानो पर रुका। कौसाम्बी मे उस समय भयकर दुष्काल चल रहा था। जनता भीषण काल के प्रकोप से पीडित थी। साधारण मनुष्य के लिए पेट-भर भोजन की बात कठिन हो गयी थी।
श्रमणो के प्रति अत्यधिक भक्ति के कारण भक्त लोग उन्हें पर्याप्त भोजन प्रदान करते थे। एक दिन आचार्य सुहस्ती के शिष्य आहारार्थ श्रेष्ठी-गृह मे गए। उनके पीछे एक रक भी चला गया। उसने श्रमणो के पात्र में श्रेष्ठी के द्वारा प्रदीयमान स्वादिष्ट भोजन सामग्री को देखा। पर्याप्त आहारोपलब्धि के बाद साधु उपाश्रय की ओर लौट रहे थे। वह रक भी उनके साथ-साथ चल रहा था। उसने श्रमणो से भोजन मागा। श्रमण बोले-"गुरु-आदेश के बिना हम कोई भी कार्य नही कर सकते।"